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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 222 साध्यते यथा नानग्निरत्र धूमात् , नावृक्षोऽयं शिशपात्वादिति मतं तदानुपलंभेनापि विधिः प्रधानभावेन साध्यता। यथास्त्यत्राग्निरनौष्ण्यानुपलब्धेरिति कथं निषेधसाधन एवैक इत्येकं संविधित्सोरन्यत्प्रच्यवते / ननु च नानग्निरत्र धूमादिति विरुद्धकार्योपलब्धिः प्रतिषेधस्य साधिका नावृक्षोऽयं शिशपात्वादिति विरुद्धव्याप्तोपलब्धिश्च यावत्कश्चित्प्रतिषेधः स सर्वोनुपलब्धेरिति वचनात् / तथास्त्यत्राग्निरनौष्ण्यानुपलब्धेरित्ययमपि स्वभावहेतुरौष्ण्योपलब्धेरेव हेतुत्वात्प्रतिषेधद्वयस्यप्रकृतार्थसमर्थकत्वादिति न प्राधान्येन द्वौ प्रतिषेधसाधनौ। अनुमान द्वारा निषेध को साध्य किया गया है। उस प्रतिषेध से भिन्न अप्रतिषेध है। यदि उस अप्रतिषेध के निराकरण की विधि न की जायेगी तो निषेध कैसे सिद्ध होगा? यदि अनुपलम्भ हेतु द्वारा उस अप्रतिषेध की विधि की सिद्धि मानोगे तो एक हेतु प्रतिषेध का ही साधक है। इस प्रकार का एवकार द्वारा अवधारण करना किस प्रकार घटित होगा? अर्थात् यहाँ एवकार नहीं लग सकता है। अर्थात् अनुपलम्भ हेतु से विधि और निषेध दोनों सिद्ध होते हैं। बौद्ध कहता है- अनुपलम्भ हेतु के द्वारा गौणरूप से विधि की सिद्धि होती है। किन्तु प्रधानता से अनुपलब्धि के द्वारा निषेध की व्यवस्था कराई जाती है, अतः इस प्रकार एक हेतु प्रतिषेध का साधक है, यह अवधारण करना घटित हो जाता है। जैनाचार्य कहते हैं तब तो कार्य, स्वभाव ये दो हेतु भावस्वरूप वस्तु के साधक हैं, यह नियम करना चाहिए क्योंकि उन दो कार्य स्वभाव हेतुओं से वस्तु के भाव की प्रधानता से विधि का विधान किया जाता है, निषेध को गौणरूप से सिद्ध किया जाता है। यदि फिर कार्य और स्वभाव हेतु से प्रतिषेध की भी प्रधानता से सिद्धि की जायेगी जैसेकि 'यहाँ अग्निरहितपना नहीं है क्योंकि धुआँ हो रहा है तथा यहाँ वृक्षरहितपना नहीं है, क्योंकि शीशों का पेड़ खड़ा है।' इस प्रकार प्रधानता से निषेध भी सिद्ध होता है, ऐसा मानोगे तब तो अनुपलम्भ के द्वारा भी प्रधानता से विधि की सिद्धि होना माना जाना चाहिए। जिस प्रकार यहाँ अग्नि है, क्योंकि उष्णतारहितपना नहीं दीख रहा है। इस प्रकार एक अनुपलब्धि हेतु निषेध को ही साधने वाला कैसे हो सकता है? अतः एक बात को सिद्ध करने पर दूसरी बात नष्ट हो जाती है। एक कथन की सिद्धि करने पर दूसरे पर व्याघात हो जाता है। प्रश्न : यहाँ अग्नि का अभाव नहीं है-धूम होने से। इस अनुमान में विरुद्ध कार्य की उपलब्धिरूप अनुपलम्भ हेतु निषेध का साधक है तथा यह प्रदेश वृक्ष रहित नहीं है, शीशों के होने से। यह विरुद्ध से व्याप्ति की उपलब्धिरूप अनुपलम्भ हेतु है। जितने भी कोई निषेध साधे जाते हैं, वे सभी अनुपलब्धि से ही सिद्ध होते हैं। ऐसा बौद्ध ग्रन्थों में कहा गया है। तथा यहाँ अग्नि है, अनुष्णता के उपलब्धि नहीं होने से। इस प्रकार यह उष्णता की उपलब्धि स्वभाव हेतु ही है, क्योंकि अनुष्णता की अनुपलब्धि भी स्वभाव है। अर्थात् अनुष्णता की अनुपलब्धि उष्णता की उपलब्धि ही है। अभाव का अभाव भावरूप होता है। दो निषेधों को प्रकृत अर्थ का समर्थकपना है। कार्य और स्वभाव हेतु ये दोनों प्रधानता से निषेध को साधने वाले नहीं हैं, किन्तु गौणरूप से निषेध को और प्रधानता से सद्भाव को साधने वाले मानते हैं। तथा एक अनुपलम्भ हेतु तो विधि का साधन नहीं माना जा सकता, जिससे कि उक्त दोष आ सकते हों। इस प्रकार कोई (बौद्ध) कहता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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