________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 221 यथा चामुंपलंभेन निषेधोऽर्थस्य साध्यते। तथा कार्यस्वभावाभ्यामिति युक्ता न तद्भिदा // 213 // ननु च द्वौ साधनावेकः प्रतिषेधहेतुरित्यत्र द्वावेव वस्तुसाधनौ प्रतिषेधहेतुरेवैक इति नियम्यते न पुनौं वस्तुसाधनावेव ताभ्यामन्यव्यवच्छेदस्यापि साधनात्। तथा नैक एव प्रतिषे धहेतुरित्यवधार्यते तत एव यतो लिंगत्रयनियमः संक्षेपान्न व्यवतिष्ठत इति न तद्विभेदो हेतुरिष्यते तस्याव्यवस्थानादित्यत्राहनिषेधहेतुरेवैक इत्ययुक्तं विधेरपि। सिद्धरनुपलंभेनान्यव्यवच्छिद्विधिर्यतः // 214 // नास्तीह प्रदेशे घटादिरुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्यानुपलब्धरित्यनुपलंभेन यथा निषेध्यस्य प्रतिषेधस्तथा व्यवच्छेदस्य विधिरपि कर्तव्य एव। प्रतिषेधो हि साध्यस्ततोऽन्योऽप्रतिषेधस्तद्व्यवच्छेदस्याविधौ कथं प्रतिषेधः सिद्ध्येत् ? तद्विधौ वा कथं प्रतिषेधहेतुरेवैक इत्यवधारणं सुघट / गुणभावेन विधेरनुपलभेन साधनात्प्राधान्येन प्रतिषेधस्यैव व्यवस्थापनात्सुघटं तथावधारणमिति चेत् , तर्हि द्वौ वस्तुसाधनावित्यवधारणमस्तु ताभ्यां वस्तुन एव प्राधान्येन विधानात् / प्रतिषेधस्य गुणभावेन साधनात् / यदि पुनः प्रतिषेधोपि कार्यस्वभावाभ्यां प्राधान्येन जिस प्रकार अनुपलम्भ के द्वारा अर्थ का निषेध सिद्ध किया जाता है, उसी प्रकार कार्य और स्वभावों से भी वस्तु का निषेध सिद्ध किया जा सकता है अतः अनुपलम्भ का उन कार्य और स्वभाव से भेद करना युक्त नहीं है॥२१३॥ भावार्थ : बौद्धों द्वारा मान्य हेतु के तीन भेद ठीक नहीं हैं। शंका : वस्तुविधि को साधने वाले हेतु दो प्रकार के हैं और एक हेतु प्रतिषेध को साधने वाला है। इस प्रकार इस कथन में दोनों ही हेतु वस्तु को साधने वाले हैं और एक हेतु प्रतिषेध को साधने वाला ही है। इस प्रकार एवकार लगाकर नियम कर दिया जाता है, किन्तु फिर वस्तु की विधि को ही साधने वाले दो हेतु हैं, ऐसा नियम तो नहीं किया गया है क्योंकि उन दो स्वभाव और कार्य हेतुओं से अन्य पदार्थों का व्यवच्छेद करना भी सिद्ध किया जाता है तथा एक ही हेतु निषेध का साधक है। यह भी अवधारण नहीं कर सकते हैं, क्योंकि निषेध साधक हेतु से अन्य किसी पदार्थ की विधि भी सिद्ध की जा सकती है, जिससे कि यहाँ संक्षेप में तीन प्रकार के हेतु का नियम करना व्यवस्थित न होवे। अर्थात् बौद्धों द्वारा माने गये कार्य में तीन हेतु ठीक हैं, अत: उपलम्भ, अनुपलम्भ दो भेद इष्ट नहीं हैं, क्योंकि उनकी समीचीन व्यवस्थिति नहीं हो सकती है। बौद्धों की इस शंका का आचार्य समाधान करते हैं- निषेध को साधने वाला एक ही अनुपलम्भ हेतु है, यह कहना अयुक्त है, क्योंकि ऐसा कहने पर अनुपलम्भ के द्वारा पदार्थों की विधि भी सिद्ध हो जाती है तथा अन्य के व्यच्छेद की विधि भी अनुपलम्भ से कर दी जाती है। यानी विधि की सिद्धि भी अनुपलम्भ हेतु से हो जाती है।।२१४॥ इस प्रदेश में घट, पुस्तक आदि नहीं हैं, क्योंकि उपलब्धिस्वरूप की योग्यता को प्राप्त होने की उपलब्धि नहीं हो रही है। अर्थात् यहाँ घट आदि होते तो अवश्य दीखने में आते; दीखने योग्य होकर वे नहीं दीख रहे हैं, अत: वे यहाँ नहीं है। इस प्रकार अनुपलम्भ के द्वारा जैसे निषेध करने योग्य घट आदि का प्रतिषेध हो जाता है, उसी प्रकार अन्य घट आदि के व्यच्छेद की विधि-भी करनी चाहिए क्योंकि,