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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 226 परस्पराविनाभावात् कश्चिद् हेतुः समाश्रितः। हेतुतत्त्वव्यवस्थैवमन्योन्याश्रयणाजनैः // 229 // राज्यादिदायकादृष्टविशेषस्यानुमापकम् / पाणिचक्रादि तत्कार्यं कथं वो भाविकारणम् // 230 // तत्परीक्षकलोकानां प्रसिद्धमनुमन्यताम्। कारणं कार्यवद्धेतुरविनाभावसंगतम् // 231 // एवं कार्योपलब्धिं कारणोपलब्धिं च निश्चित्य संप्रत्यकार्यकारणोपलब्धिं विभिद्योदाहरन्नाह;कार्यकारणनिर्मुक्तवस्तुदृष्टिर्विवक्ष्यते। तत्स्वभावोपलब्धिश्च तदसम्बन्धनिश्चिता // 23 // कथंचित्साध्यतादात्म्यपरिणाममितस्य या। स्वभावस्योपलब्धिः स्यात्साविनाभावलक्षणा // 233 // उत्पादादित्रयाक्रांतं समस्तं सत्त्वतो यथा। गुणपर्ययवद्रव्यं द्रव्यत्वादिति चोच्यते // 234 // यस्यार्थस्य स्वभावोपलंभः स व्यवसायकः। सिद्धिस्तस्यानुमानेन किं त्वयान्यत्प्रसाध्यते // 235 / / समारोपव्यवच्छेदस्तेनेत्यपि न युक्तिमत्। निश्चितेर्थे समारोपासंभवादिति केचन // 236 // तदसद्वस्तुनोनेकस्वभावस्य विनिश्चिते। सत्त्वादावपि साध्यात्मनिश्चयान्निश्यमान्नृणाम् // 237 // कार्य और कारण का परस्पर में अविनाभाव होने से दोनों में से चाहे जिस किसी को हेतुतत्त्व की व्यवस्था का आश्रय लेने पर तो इसमें अन्योन्याश्रय दोष आने से हेतु की व्यवस्था कैसे हो सकेगी॥२२९॥ तुम्हारे मत में राज्यादि को दिलाने वाले पुण्य-पाप विशेषों का अनुमान कराने वाले पाणिचक्र (हस्तरेखा में चक्र का चिह्न) आदि भावी कारण के कार्य कैसे हो सकते हैं? // 230 // अतः परीक्षक जनों को यह प्रसिद्ध बात मान लेनी चाहिए कि कार्य के समान अविनाभाव से युक्त कारण भी ज्ञापक हेतु बन जाता है॥२३१॥ इस प्रकार विधि को साधने वाले उपलम्भ हेतुओं में से कार्य-उपलम्भ और कारण-उपलम्भ हेतुओं का निश्चय कर इस समय कार्य, कारण से रहित उपलब्धि के विशेषभेद का उदाहरण दिखलाते हुए आचार्य निरूपण करते हैं कार्य और कारण से रहित वस्तु का उपलम्भ जब विवक्षित किया जाता है, तब वह कार्य कारण सम्बन्ध से रहित निश्चित की गई स्वभाव उपलब्धि कही जाती है। साध्य के साथ कथंचित् तदात्मकपन परिणाम को प्राप्त स्वभाव का उपलम्भ होता है वह अविनाभाव स्वरूप स्वभाव उपलम्भ हेतु का बीज है। उसके उदाहरण इस प्रकार हैं कि सम्पूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन धर्मों से अधिरूढ़ हैं, सत्त्व होने से। जैसे घड़ा, कड़ा, आदि पदार्थ सत्त्व होने से उत्पादादि तीनों से युक्त है तथा द्रव्य सहभावी गुण और क्रमभावी पर्यायों से युक्त है द्रवणत्व होने से। इस प्रकार स्वभाव उपलम्भ के उदाहरण कहे जाते हैं। सम्पूर्ण पदार्थों का सत्पना स्वभाव है और गुणपर्ययवान् का स्वभाव द्रव्यत्व धर्म है॥२३२-२३३-२३४॥ कोई शंका करता है-जिस अर्थ के स्वभाव का उपलम्भ निश्चयात्मक है, उस स्वभाववान् अर्थ के निश्चय की सिद्धि तो अवश्य हो जाती है फिर उस स्वभाववान् अर्थ का अनुमान के द्वारा तुमने स्वभाववान् सूत्र से भिन्न किस अर्थ को सिद्ध किया है? समाधान : स्वभाववान् अर्थ में किसी कारण से संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय अथवा अज्ञानरूप समारोप उत्पन्न हो जाता है, उसका व्यवच्छेद करना अनुमान से सिद्ध किया जाता है। कोई कहता है कि यह तुम्हारा कहना भी युक्तिसहित नहीं है, क्योंकि निश्चित किये गये अर्थ में समारोपं होना असंभव है॥२३५-२३६॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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