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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 213 नेदं नैरात्मकं जीवच्छरीरमप्राणादिमत्त्वप्रसंगादिति / यदुभयपक्षसम्प्रतिपन्नमप्राणादिमत्तन्निरात्मकं दृष्टं यथा घटादि न चेदमप्राणादिज्जीवच्छरीरं–तस्मान्न निरात्मकमिति निरात्मकत्वस्य परपक्षस्य प्रतिषेधनं जीवच्छरीरे सात्मकत्वस्यार्थपरिच्छित्तिहेतुत्वादिति न्यायवार्तिककारवचनात् / तथोदाहरणसाधर्म्यवैधाभ्यां साध्यसाधनमनुमानमिति वीतावीतलक्षणं स्वपक्षविधानेन परपक्षप्रतिषेधेन चार्थपरिच्छेदहेतुत्वात् / तद्यथासाग्निः पर्वतोयमनग्निर्न भवति धूमवत्वादन्यथा निर्धूमत्वप्रसंगात्। धूमवान्महानसः साग्निर्दृष्टोऽनग्निस्तु महानसो है) तथा उदाहरण के विधर्मत्व से साध्य को साधने वाला हेतु है। यह अवीत हेतु का लक्षण है, क्योंकि साध्य से पृथक् परपक्ष का निषेध करके साध्य अर्थ की ज्ञप्ति करने में स्थित हेतु अवीत है इस प्रकार ग्रन्थों में कहा गया है। उसी को उदाहरण द्वारा कहते हैं कि यह जीवित शरीर आत्मरहित नहीं है। अन्यथा अप्राणादिमत्व का प्रसंग आता है अर्थात् जीव रहित शरीर में प्राण नहीं रहते हैं। (इस प्रकार निषेधपूर्वक साध्य की विधि समझाई गई है) न्यायवार्तिक को बनाने वाले विद्वान् ने भी ऐसा कथन किया है कि जो वादी, प्रतिवादी इन दोनों के पक्ष अनुसार प्राण आदि से रहित होने से वह शरीर आत्मा से रहित देखा गया है; जैसे कि घड़ा पदार्थ। यह जीवित शरीर प्राणादिमान् से भिन्न नहीं है, अत: आत्मरहित नहीं है। इस प्रकार आत्मरहितपनारूप मरपक्ष का निषेध करना जीवित शरीर में आत्मसहितपन रूप अर्थ की परिच्छित्ति का कारण होने से अवीत हेतु माना गया है। तथा उदाहरण के सधर्मत्व और विधर्मत्व के द्वारा साध्य और साधन का अनुमान होता है। इस प्रकार वीतावीत हेतु का लक्षण किया गया है। अपने पक्ष की विधि करके और पर पक्ष का निषेध करके अर्थ की परिच्छित्ति के कराने वाले कारण को वीतावीत हेतु कहा जाता है। उसी का उदाहरण देते हैं कि यह पर्वत अग्नि सहित है (अग्नि रहित नहीं है), धूम सहित होने से। अन्यथा (पर्वत को अग्नि रहित माना जाता है तो) धूमरहितत्व का प्रसंग आता है। जैसे रसोईघर धूमसहित होने से अग्निसहित ही देखा जाता है। अग्नि से रहित रसोईघर धूमरहित देखा जाता है। इस प्रकार वीतावीत हेतु सिद्ध है। ____ सो यह वीत, अवीत और वीतावीत का त्रितय भी साध्य सद्भाव के अभाव में सम्भव नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि अन्यथानुपपत्ति की सामर्थ्य से ही इनमें गमकपना आता है। परन्तु वीतपन, अवीतपन आदि के द्वारा कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। यदि वीतपन आदि के द्वारा सद्धेतुपना मान लिया जायेगा तो अन्यथानुपपत्ति के न होने पर भी 'मित्रातनयत्व' इस स्त्री का गर्भस्थ बालक कृष्ण वर्ण का है मित्रा का पुत्र होने से, जो जो मित्रा के पुत्र हैं वे कृष्ण वर्ण के होते हैं जैसे यह पुत्र यह भी मित्रा का पुत्र है इसलिए यह भी कृष्ण वर्ण का है। इस हेतु में अनुमान के पाँचों अंग गर्भित हैं, पुत्र यह हेत्वाभास है क्योंकि मित्रात्व हेतु के साथ कृष्णत्व साध्य के साथ अविनाभाव नहीं है कि किसी मानव के सारे पुत्र कृष्ण वर्ण के हों। भिन्न वर्ण के भी हो सकते हैं। आदि हेत्वाभासों को वीत या अवीतत्व के द्वारा गमकत्व का प्रसंग आयेगा। अतः वीत आदि का कहा गया लक्षण (या भेद करना) प्रशस्त नहीं है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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