________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 212 सर्वथा तदभावात्। तथा पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टमन्वयव्यतिरेकिसाधनं, यथाग्निरत्र धूमादिति। तदपि के वलव्यतिरेकिणो योगोपगतस्य निराकरणादेव निराकृतं, साध्याभावसंभवनियमनिश्चयमंतरेण साधनत्वासंभवात्। तदनेन न्यायवार्तिकटीकाकारव्याख्यानमनुमानसूत्रस्य त्रिसूत्रीकरणेन प्रत्याख्यातं प्रतिपत्तव्यमिति लिंगलक्षणानामन्वयित्वादीनां त्रयेण पक्षधर्मत्वादीनामिव न प्रयोजनं / नापि पूर्ववदादिभेदानां कार्यादीनामिव सत्यन्यथानुपपन्नत्वे तेनैव पर्याप्तत्वात् / यदप्यत्रावाचि उदाहरणसाधर्म्यात्साध्यसाधनं हेतुरिति वीतलक्षणं लिंगं तत्स्वरूपेणार्थपरिच्छेदकत्वं वीतधर्म इति वचनात् / तद्यथा-अनित्यः शब्दः उत्पत्तिधर्मकत्वाद्घटवदिति शब्दस्वरूपेणोत्पत्तिधर्मकत्वेनानित्यत्वार्थस्य परिच्छेदात् / तथोदाहरण वैधात्साध्यसाधनं हेतुरित्यवीतलक्षणं परपक्षप्रतिषेधेनार्थ—परिच्छेदने वर्तमानमवीतमिति वचनात् / तद्यथा। अत: नैयायिकों द्वारा माना गया हेतु का दूसरा भेद भी प्रतिष्ठित नहीं होता है। तथा अन्वय और व्यतिरेक दोनों से सहित हेतु को साधने वाला पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतो दृष्ट' है, जैसे कि इस पर्वत पर अग्नि है-धूम होने से। इस प्रयोग से धूम हेतु में अन्वय व्याप्ति और व्यतिरेक व्याप्ति दोनों होती हैं। इस प्रकार वह अन्वय व्यतिरेकी हेतु भी नैयायिकों द्वारा स्वीकार किये गये दूसरे केवलव्यतिरेकी हेतु का खण्डन कर देने से ही निराकृत कर दिया गया है, क्योंकि, साध्य के न रहने पर हेतु का नहीं रहना नियम के निश्चय बिना अन्वय या व्यतिरेक से सद्हेतुत्व की असंभवता है। अतः इस उक्त कथन के द्वारा न्यायवार्तिक की टीका करने वाले के उस व्याख्यान का खण्डन कर दिया गया समझ लेना चाहिए, जो कि 'अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम् पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतोदृष्टञ्च' इस अनुमान सूत्र का योग विभाग कर तीन सूत्रों के समुदायरूप से कहा गया है। इस प्रकार हेतु के अन्वयसहितत्व, व्यतिरेकसहितत्व और अन्वयव्यतिरेकसहितत्व लक्षणों के तीन अवयवों के द्वारा नैयायिकों के यहाँ कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। जैसे बौद्धों के द्वारा स्वीकृत पक्षवृत्तित्व, सपक्षवृत्तित्व, विपक्षव्यावृत्ति इन तीन रूपों से कोई प्रयोजन नहीं निकलता है। तथा पूर्ववत् या शेषवत् अथवा सामान्यतो दृष्ट-वीत आदि भेदों के द्वारा भी कोई फल नहीं है, जैसे कि कार्य और कारण तथा अकार्यकारण इन तीन भेदों से कोई अभीष्ट सिद्ध नहीं होता है। क्योंकि, हेतु में अन्यथानुपपत्ति होने से ही सम्पूर्ण प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं अर्थात् अन्यथानुपपत्ति ही हेतु की परिपूर्णशक्ति जो यहाँ (इस हेतु में) यह कहा गया था कि उदाहरण के साधर्म्य से साध्य को साधने वाला हेतु है। यह वीतनामक हेतु का लक्षण है क्योंकि उस हेतु के स्वरूप के द्वारा साध्य रूप अर्थ की ज्ञप्ति करा देना वीत हेतु का धर्म है', ऐसा मूलग्रन्थों में कहा गया है उसी को उदाहरणपूर्वक स्पष्ट करते शब्द अनित्य है-उत्पत्ति नाम के धर्म से सहित होने के कारण, जैसे कि घड़ा। यहाँ शब्द के स्वरूप के द्वारा उत्पत्ति धर्म सहित से अनित्यपनारूप साध्य अर्थ की ज्ञप्ति की गई है (यह प्रथम वीत का उदाहरण