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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 211 तथा जीवच्छरीरं तस्मात्सात्मकमिति। तदेतदपि न परेषां गमकं / साध्यविरुद्धे विपक्षे अननुभूयमानमपि साध्याभावे विपक्षे स्वयमसत्त्वेनानिश्चयात् तत्र तत्र तस्य सत्त्वसंभावनायां नैकांतिकत्वोपपत्तेः। साध्यविरुद्ध एव साध्याभावस्ततो निवर्तमानत्वाद्गमक मेवेदमिति चेत् तर्हि तदन्यथानुपपन्नत्वसाधनं साध्याभावसंभवनियमस्यैव स्याद्वादिभिरविनाभावस्येष्टत्वात् न पुनः। केवलव्यतिरेकित्वान्नेदं क्षणिकं तत्सच्चित्तशून्यं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वात् सर्वं क्षणिक सत्त्वादित्येवमादेरपि गमकत्वप्रसंगात् / साध्याभावेप्यस्य सद्भावान्न साधनत्वमितिचेत् तद्दन्यथानुपपत्तिबलादेव परिणामिना सात्मकत्वे प्राणादिमत्त्वं साधनं नापरिणामिना आत्मा से सहित है (यह केवलव्यतिरेकी हेतु का उदाहरण प्रसिद्ध है) सो यह भी पूर्ववत् सामान्यतोऽदृष्ट' हेतु साध्य का बोधक नहीं हो सकता है क्योंकि साध्य से विरुद्ध हो रहे भस्म आदि का विपक्ष में यद्यपि अनुभव नहीं किया जा रहा है, तो भी साध्याभावरूप विपक्ष में हेतु का स्वयं नहीं रहने से निश्चय नहीं हो रहा है। उन विपक्षों में उस हेतु के विद्यमान रहने की सम्भावना हो जाना मानने पर तो प्राणादिमत्त्व हेतु व्यभिचारी हो जाता है। अर्थात् कभी हलन-चलन रहित शरीर में भी आत्मा रह सकती है। __(नैयायिक कहता है कि) साध्य से विरुद्ध ही तो साध्याभावरूप विपक्ष है। उस विपक्ष से निवृत्त होने के कारण यह प्राणादिमत्त्व हेतु आत्मसहितपने का गमक ही है। इस पर जैन कहते हैं कि वह केवलव्यतिरेकीपना भी हेतु की अन्यथानुपपत्ति को सिद्ध करता है, क्योंकि साध्य के अभाव होने पर हेतु का नियम से असम्भव होने को ही स्याद्वादियों ने अविनाभाव अभीष्ट किया है किन्तु फिर केवल व्यतिरेकी इष्ट सिद्धि नहीं। यदि अन्यथानुपपत्ति का त्यागकर मात्र केवलव्यतिरेकीपन से ही हेतु को गमक माना जायेगा तो 'यह क्षणिक नहीं है, शब्दपना होने से'। इस अनुमान का शब्दत्व हेतु भी गमक हो जाएगा, किन्तु नैयायिकों के यहाँ क्षणिकत्व का अभाव साधने के लिए दिया गया शब्दत्व हेतु सद्धेतु नहीं है, तथा जीवित शरीर आत्मा से सहित है-प्राण आदि करके विशिष्ट होने से, और सम्पूर्ण पदार्थ क्षणिक हैं, सत्रूप होने से। इस प्रकार के अन्य भी छाया, अग्नि आदि हेतुओं को भी अपने साध्य की ज्ञप्ति करानेपन का प्रसंग आयेगा। अर्थात् यहाँ छाया नहीं है वृक्ष नहीं होने से, यहाँ अग्नि नहीं धूम नहीं होने से आदि हेतुओं से भी साध्य की सिद्धि का प्रसंग आयेगा, पर ऐसा नहीं है क्योंकि धूम के बिना भी अग्नि रहती है। हलन-चलन क्रिया और श्वासोच्छ्वास के नहीं होने पर आत्मा सहित जीवित शरीर रह सकता है जैसे कभी नाड़ी श्वासोच्छ्वास हलन चलन नहीं होने पर भी जीवित शरीर हो सकता है विशिष्ट मूर्छा आदि में अतः यह हेतु सद् हेतु नहीं है। . साध्य के अभाव में भी इन सत्त्व, प्राणादिमत्त्व आदि हेतुओं का सद्भाव है, अत: ये समीचीन हेतु नहीं हैं। ऐसा कहते हैं तो अन्यथानुपपत्ति की सामर्थ्य से ही उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप परिणाम से युक्त आत्मा सहितत्व साधने में प्राणादिमत्त्व हेतु समीचीन है। परिणमन करने से रहित सर्वथा कूटस्थ आत्मा से सहितपना जीवित शरीर में प्राणादिमत्त्व हेतु के द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अपरिणामी आत्मा से सहितपन के साथ प्राणादिमत्त्व हेतु की उस अन्यथानुपपत्ति का अभाव है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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