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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 210 भिन्नप्रतिभासित्वं यदि कथंचित्तदान्यथानुपपन्नत्वादेव कथंचिद्भेदसाधनं नान्वयित्वात् द्रव्यं गुणकर्मसामान्यविशेषसमवायप्रागभावादयः प्रमेयत्वात् पृथिव्यादिवदित्येतस्यापि गमकत्वप्रसंगात् / धर्मिग्राहकप्रमाणबाधितत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वान्नेदं गमकमितिचेत् , तबाधितविषयत्वमपि लिंगलक्षणं तच्चान्यथानुपपन्नत्वमेवेत्युक्तं / सत्प्रतिपक्षत्वान्नेदं गमकत्वमिति चेत्तर्हि असत्प्रतिपक्षत्वं हेतुलक्षणं तदप्यविनाभाव एवेति निवेदितं ततोन्यथानुपपन्नत्वाभावादेवेदमगमकं / एतेन सर्वथा भिन्नप्रतिभासत्वं भेदसाधनमगमकमुक्तं कालात्ययापदिष्टत्वसत्प्रतिपक्षत्वाविशेषात् / अवयवादीनां हि सत्त्वादिना कथंचिदभेद: प्रमाणेन प्रतीयते सर्वथा तद्भेदस्य संकृ दप्यनवभासनात् / तत एवासिद्धत्वान्नेदं गमकं सिद्धस्यैवान्यथानुपपत्तिसंभवात्। तथा पूर्ववत्सामान्यतोऽदृष्टं केवलव्यतिरेकिलिंगं विपक्षे देशतः कात्य॑तो वा तस्यादृष्टत्वात्। सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वात् यन्न सात्मकं तन्न प्राणादिमद् दृष्टं यथा भस्मादि न च जैसेकि पृथ्वी, जल, तेज आदि पदार्थ द्रव्य हैं। इस अनुमान में दिये गये प्रमेयत्व हेतु को भी अन्वय दृष्टान्त होने से ज्ञापक का प्रसंग आता है (परन्तु नैयायिक या वैशेषिक गुण, कर्म आदि में द्रव्यपना इष्ट नहीं करते यदि गुण, कर्म आदिक रूप पक्ष को ग्रहण करने वाले प्रमाण से बाधित होने के कारण कालात्ययापदिष्ट (बाधित विषय) हो जाने से यह हेतु गमक नहीं है तो अबाधित विषयपना भी हेतु का लक्षण बन जाता है और वह अबाधितपना अन्यथानुपपत्तिरूप ही है। इसको हम पूर्व में कह चुके हैं। ___ सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास हो जाने से यह प्रमेयत्व हेतु गमक नहीं है। इस प्रकार नैयायिकों के कहने पर जैन कहते हैं कि तब तो असत्प्रतिपक्षत्व भी हेतु का लक्षण हो जाता है जो कि नैयायिकों को इष्ट है। किन्तु वह भी अविनाभाव ही है, इस बात का कथन भी कर चुके हैं। इसलिए अन्यथानुपपन्नत्व का अभाव होने से प्रमेयत्व हेतु साध्य का गमक नहीं है। इस उक्त कथन से द्वितीय विकल्प अनुसार सर्वथा भिन्न प्रतिभासित्व हेतु भी गुण, गुणी आदि के भेद को साधने में गमक नहीं है, यह बात कही जा चुकी है, क्योंकि कालात्ययापदिष्टत्व और सत्प्रतिपक्षत्व इन दोनों दोषों में कोई विशेषता नहीं है (अर्थात् कथंचित् भिन्न प्रतिभासित्व और सर्वथा भिन्न प्रतिभासित्व ये दोनों ही हेतु सर्वथा भेद को साधने में बाधित और सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास है)। अवयव अवयवी आदि का सत्त्व, वस्तुत्व आदि हेतुओं से कथंचित् अभेद प्रमाण द्वारा प्रतीत होता है। सर्वथा भेद एक बार भी प्रतिभासित नहीं हुआ है अतः असिद्ध हेत्वाभास होने से यह भिन्न प्रतिभासत्व हेतु सर्वथा भेद का गमक नहीं है अपितु सिद्ध हेतु की अन्यथानुपपत्ति संभव है। बौद्ध का कथन - दूसरे पूर्ववत् सामान्यतोऽदृष्ट को केवलव्यतिरेकी हेतु माना है, क्योंकि विपक्ष में एकदेश से अथवा सम्पूर्ण रूप से वह नहीं देखा गया है। जैसे कि यह जीवित शरीर आत्मा सहित है सप्राण, (वायु, नाड़ी चलना आदि) होने से। जो पदार्थ आत्मा से सहित नहीं है, वे प्राण से सहित नहीं देखे गये हैं। जैसे भस्म आदि। उस प्रकार का प्राण आदि से रहित जीवित शरीर नहीं है अत: जीवित शरीर
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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