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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 209 पूर्ववच्छेषवत्केवलान्वयिसाधनं यथावयवावयविनौ गुणगुणिनौ क्रियाक्रियावंतौ जातिजातिमतौ वा परस्परतो भिन्नौ भिन्नप्रतिभासत्वात् सह्यविंध्यवदिति तत्साध्याभावेपि यदि सत्तदानैकांतिकमेव। अथासत्कथं न व्यतिरेक्यपि ? साध्याभावे साधनस्याभावो हि व्यतिरेकः स चास्यास्तीति तदा केवलान्वयि लिंगं त्रिरूपादविशिष्टत्वात् वैधय॑दृष्टांताधाराभावान्नास्य व्यतिरेक इति चेन्नेदं युक्तिमत् , तदभावेपि साध्याभावप्रयुक्तस्य साधनाभावस्याविरोधात्। न ह्यभावे कस्यचिदभावो विरुध्यते खरविषाणाभावे गगनकुसुमाभावस्य विरोधप्रसंगात् सर्वत्र वैधर्म्यदृष्टांतेधिकरणस्यावश्यं भावितयानिष्टत्वाच्च। किं चेदं केवल अन्वयव्याप्तियुक्त हेतु पूर्ववत् शेषवत् नामका है, जैसे कि अवयव और अवयवी, गुण और गुणी, क्रिया और क्रियावान तथा जाति और जातिमान्-ये पदार्थ परस्पर में एक दूसरे से भिन्न हैं-क्योंकि ज्ञान द्वारा इनका पृथक्-पृथक् प्रतिभास होता है, जैसे सह्य और विंध्य पर्वत का भिन्न-भिन्न प्रतिभास होता mc. mc ___ इस प्रकार केवलान्वयी हेतु यदि साध्य के नहीं रहने पर कहीं विद्यमान रहता है, तब तो व्यभिचारी है और वह भिन्न प्रतिभासपना हेतु यदि साध्य का अभाव रहने पर नहीं रहता है तो वह साधन व्यतिरेकी क्यों नहीं होगा? अर्थात् नैयायिकों से माना गया केवलान्वयी हेतु भी व्यतिरेक व्याप्ति से युक्त है क्योंकि साध्य के नहीं रहने पर नियम से हेतु का नहीं रहना ही व्यतिरेक माना गया है और वह व्यतिरेक इस भिन्न प्रतिभासत्व हेतु में विद्यमान है। इस प्रकार नैयायिकों द्वारा माना गया केवलान्वयी हेतु बौद्धों के तीन रूप वाले हेतु से कोई विशेषता नहीं रखता है अर्थात् केवल अन्वय व्याप्ति वाला माना गया हेतु व्यतिरेक व्याप्ति को भी धारने वाला हो जाता है।ऐसी दशा में नैयायिकों द्वारा हेतु के पूर्ववत्शेषवत्, पूर्ववत् सामान्यतो दृष्ट, पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्ट-ये तीन भेद करना व्यर्थ है, क्योंकि केवलान्वयी और अन्वय-व्यतिरेकी में कोई अन्तर नहीं है। ... इस भिन्नप्रतिभासत्व हेतु का कोई वैधर्म्यदृष्टान्तरूप आधार नहीं होने से व्यतिरेक घटित नहीं होता है। इस प्रकार कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उस वैधर्म्यदृष्टान्त के न होने पर भी साध्य का अभाव रहने पर प्रयुक्त किये गए साधन के अभाव का कोई विरोध नहीं है। किसी एक विवक्षित पदार्थ के अभाव होने पर किसी एक पदार्थ का अभाव होना सर्वथा विरुद्ध नहीं है। अन्यथा खरविषाण के अभाव होने पर आकाशपुष्प के अभाव का विरोध हो जाने का प्रसंग आएगा। सभी वैधर्म्य दृष्टान्तों में अधिकरण का आवश्यकरूप से होना इष्ट नहीं किया है (अनिष्ट ही है)। अथवा, यह गुणगुणी आदि में सर्वथा भेद को सिद्ध करने वाला भिन्न प्रतिभासत्व हेतु यदि कथंचित् पृथक् प्रतिभासरूप है, तब तो अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु से ही गुण, गुणी, क्रिया, क्रियावान् आदि में कथंचित् भेद की सिद्धि हो ही जाती है, वह केवलान्वयी हेतु से सर्वथा भेद की सिद्धि नहीं होती। यदि अन्वय सहित से ही हेतु साध्य का ज्ञापक माना जायेगा तो गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और प्रागभाव, प्राध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव, अत्यन्ताभाव ये सम्पूर्ण भाव, अभाव पदार्थ द्रव्यस्वरूप हैं-प्रमेय होने से,
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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