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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 208 केवलव्यतिरेकीष्टमनुमानं न पूर्ववत् / तथा सामान्यतो दृष्टं गमकत्वं न तस्य वः // 200 // तद्विरुद्ध विपक्षस्यासत्त्वे व्यवसितेपि हि। तदभावे त्वनिर्णीते कुतो नि:संशयात्मता // 201 // यो विरुद्धोत्र साध्येन तस्याभावः स एव चेत् / ततो निवर्तमानश्च हेतुः स्याद्वादिनां मतम् / / 202 // अन्वयव्यतिरेकी च हेतुर्यस्तेन वर्णितः। पूर्वानुमानसूत्रेण सोप्येतेन निराकृतः॥२०३॥ कार्यादित्रयवत्तस्मादेतेनापि त्रयेण किम्। भेदानां लक्षणानां च वीतादित्रितयेन च // 204 // केवलान्वयी का विचार कर अब केवलव्यतिरेकी का विचार करते हैं कि जिस प्रकार केवल व्यतिरेकव्याप्ति रखने वाले अनुमान को पूर्ववत् (केवलान्वयी) अनुमान इष्ट नहीं है, और वह अविनाभाव सहित होने से साध्य का बोधक भी नहीं है, उसी प्रकार तुम्हारे यहाँ सामान्य तो दृष्ट नाम का (अन्वयव्यतिरेक वाला) हेतु भी साध्य का गमक नहीं है / / 200 // उस साध्यवान् से विरुद्ध विपक्ष में इस हेतु के असत्त्व का निर्णय होने पर भी उस साध्य के अभाव होने पर हेतु के अभाव का जब तक केवलान्वयी हेतु में निर्णय नहीं हुआ है, तब तक निसंशयस्वरूप से कैसे कहा जा सकता है? यदि (नैयायिक कहें कि) यहाँ साध्य से विरुद्ध है, वही तो उस साध्य का अभाव है, तो (हम जैन कहेंगे कि) उस विरुद्ध से निवृत्तरूप हेतु मान लिया यही तो स्याद्वादियों का सिद्धान्त है। यहाँ तक हेतु के दो भेदों का विचार कर दिया गया है अर्थात् केवल अन्वयी और केवलव्यतिरेकी हेतु का कथन किया है॥२०१-२०२॥ उन नैयायिकों द्वारा पहले के अनुमानसूत्र करके जो ('पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतो दृष्ट स्वरूप') अन्वयव्यतिरेकवाले हेतु का वर्णन किया गया है, वह भी उक्त कथन करके खण्डित कर दिया गया है। 203 // कार्यहेतु, कारणहेतु और अकार्यकारण हेतुओं का इस उक्त कथन से निराकरण हो जाता है। अतः हेतु के तीन अंग से क्या लाभ है अथवा कार्य आदि तीन भेदों के समान इन पूर्ववत् आदि हेतु के भेदों और लक्षणों से कोई फल नहीं सिद्ध होता है तथा वीत, अवीत और वीतावीत इन तीन भेदवाले हेतु करके भी लाभ नहीं है। अर्थात् (तथोपपत्ति साध्य) के रहने पर ही हेतु का रहना अन्वयव्याप्ति से विशिष्ट हुए हेतु को वीत कहते हैं जैसे कि घट, पट आदि पदार्थ सत् हैं प्रमेय होने से और जिस हेतु में साध्याभाववदवृत्तित्व' साध्याभाव वाले विपक्ष में हेतु का नहीं रहनास्वरूप केवल व्यतिरेक व्याप्ति पाई जाती है, वह अवीत है जैसे कि जीवित शरीर आत्माओं से सहित है-प्राण आदिक सहितपना होने से। तथा जिस हेतु में अन्वयव्यतिरेक दोनों घट जाते हैं, वह वीतावीत है जैसे कि शब्द अनित्य है-कृतक होने से। यह व्याप्ति का लक्षण घट जाता है। वस्तुतः यह कहना है कि अन्यथानुपपत्तिरूप व्याप्ति ही हेतु का प्राण है। अन्य किसी से भी किसी विशेष प्रयोजन की सिद्धि नहीं है। तथा संयोगी, समवायी, एकार्थसमवायी और विरोधी इन चार भेदों आदि से भी कोई प्रयोजन नहीं सधता है॥२०४॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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