SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 207 प्रत्यक्षपूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टं चेति न्यायसूत्रस्य वाक्यभेदात्रिसूत्री कैश्चित्परिकल्पिता स्यात् तामनूद्य निराकुर्वन्नाह;पूर्वं प्रसज्यमानत्वात् पूर्वपक्षस्ततोपरः। शेष: सुपक्ष एवेष्टस्तद्योगो यस्य दृश्यते // 196 // पूर्ववच्छेषवत्प्रोक्तं केवलास्वपि साधनम्। साध्याभावे भवत्तच्च त्रिरूपान्न विशिष्यते // 197 // यस्य वैधादृष्टांताधारः कश्चन विद्यते / तस्यैव व्यतिरेकोस्ति नान्यस्येति न युक्तिमत् // 198 // ततो वैधर्म्यदृष्टांतेनेष्टोवश्यमिहाश्रयः। तदभावेप्यभावस्याविरोधाद्धेतुतद्वतोः // 199 // भावार्थ : साध्य के साथ जिसका अविनाभाव सम्बन्ध है वही वास्तव में हेतु है। इस प्रकार जैनाचार्य ने निषेध हेतु का कथन कर दिया तब बौद्ध द्वारा कथित हेतु के तीन और नैयायिक द्वारा स्वीकृत पाँच अंग से क्या प्रयोजन है। तथा बौद्धों के द्वारा कथित तीन अंग का विस्तार पूर्वक खण्डन कर देने पर नैयायिक के पाँच का खण्डन करने का प्रयत्न करने से क्या प्रयोजन है क्योंकि बौद्धों के तीन के खण्डन से उनका भी खण्डन हो ही जाता है। तथा स्याद्वादियों के अविनाभाव हेतु के सिद्ध होने से वे सब अकिंचित्कर हैं। - इस समय पूर्ववत्', शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट' इन तीन रूप करके अथवा वीत, अवीत और वीतावीत इन तीनों भेदों के द्वारा कुछ भी दूसरे व्याख्यान को समर्थन करने के लिए किसी टीकाकार ने न्यायसूत्र का उल्लेख कर यह कल्पना की है- 'अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतो दृष्टं च' पूर्ववत् शेषवत् ; शेषवत् सामान्यतो दृष्ट, पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतो दृष्ट, इस प्रकार एक सूत्र में * योगविभाग कर तीन सूत्रों का समाहार किन्हीं विद्वानों द्वारा कल्पित किया जा सकता है। उस कल्पना का अनुवाद से निराकरण करते हुए आचार्य स्पष्ट करते हैं पूर्ववत् शब्द में पूर्व और मतुप ये दो पद हैं। पूर्व में प्रसंग प्राप्त होने से पूर्व का अर्थ पक्ष है। उससे भिन्न शेष का अर्थ अन्वयदृष्टान्तरूप सपक्ष है। मतुप् का अर्थ योग है उन पूर्व यानी पक्ष और शेष यानी सपक्ष इन दोनों का जिस हेतु में योग देखा जाता है, वह पूर्ववत् शेषवत् अनुमान कहा गया है इस अनुमान का हेतु केवलान्वयी है जैसे कि सभी पदार्थ कथन करने योग्य हैं, क्योंकि प्रमेय हैं। . जैन आचार्य कहते हैं कि यदि आपका यह हेतु साध्य के अभाव होने पर नहीं रहता है तब तो वह बौद्धों के त्रिरूपहेतु से कोई भी विशेषता नहीं रखता है अर्थात्-पक्ष और सपक्ष में वृत्ति तो आपने मान ही ली है किन्तु विपक्ष में व्यावृत्ति होना भी पीछे से विकल्प उठाने पर मान लिया है अत: त्रिरूप का खण्डन करने से पूर्ववत् शेषवत् हेतु का भी खण्डन हो जाता है॥१९६-१९७॥ .. जिस हेतु का वैधर्म्य दृष्टान्तरूप कोई आधार विद्यमान है, उस हेतु के ही साध्य के न रहने पर हेतु का न रहना रूप व्यतिरेक माना जाता है। अन्य केवलान्वयी हेतुओं का व्यतिरेक नहीं है, इस प्रकार नैयायिकों का कहना युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि वैधर्म्य दृष्टान्त में आश्रय अवश्य होना ही चाहिए। ऐसा यहाँ इष्ट नहीं किया है, हेतु और उससे सहित साध्य इन दोनों का उस साध्य के न होने पर हेतु के अभाव हो जाने का कोई विरोध नहीं है अर्थात साध्य के अभाव होता ही है अतः अन्वय के साथ व्यतिरेक रहता ही है॥१९८-१९९॥ 1. केवलान्वयी 2. केवल व्यतिरेकी 3. अन्वयव्यतिरेकी
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy