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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 214 निधूम इति तदेतद्वीतादित्रितयं यदि साध्यभावसंभूष्णुः तदान्यथानुपपत्तिबलादेव गमकत्वं न पुनर्वीतादित्वेनैवेत्यन्यथानुपपत्तिविरहेपि गमकत्वप्रसंगात् / यदि पुनरन्यथानुपपत्तिर्वीतादित्वं प्राप्य हेतोर्लक्षणं तदा " देवतां प्राप्य हरीतकी विरेचयते'' इति कस्यचित्सुभाषितमायातं / हरीतक्यन्वयव्यतिरेकानुविधानाद्विरेचनस्य स्वदेवतोपयोगिनी तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावात्तस्येति प्रकृतेपि समानं / हेतोरन्यथानुपपत्तिसदसत्त्वप्रयुक्तत्वाद्गमकत्वागंमकत्वयोरिति न किंचिद्वीतादित्रितयेन लक्षणानां भेदानां वा सर्वथा गमकत्वानंगत्वात् सर्वभेदासंग्रहाच्च॥ कारणात्कार्यविज्ञानं कार्यात्कारणवेदनम्। अकार्यकारणाच्चापि दृष्टात्सामान्यतो गतिः॥२०५॥ तादृशी त्रितयेणापि नियतेन प्रयोजनम्। किमेकलक्षणाध्यासादन्यस्याप्यनिवारणात् // 206 // पुनः प्रतिवादी कहता है कि वीत आदित्व को प्राप्त होकर अन्यथानुपपत्ति हेतु का लक्षण बन सकता है। स्वतंत्र अन्यथानुपपत्ति हेतु का लक्षण नहीं है। आचार्य कहते हैं कि तब तो यह परिभाषा चरितार्थ हुई कि देवता को प्राप्त होकर हर रेचन कराती है। देवता को प्राप्त नहीं हुई हर्र कुछ नहीं कर सकती। भावार्थ : अन्धभक्त का विचार है कि सम्पूर्ण कार्यों को देवता करते हैं। अन्नदेवता, जल देवता ही गेहूँ आदि में प्रविष्ट होकर भूख, प्यास को दूर करते हैं। विरेचन' का हरड के साथ अन्वयव्यतिरेकपना है, अत: इष्ट देवता रेचन कराने में उपयोगी नहीं है क्योंकि उस देवता के साथ उस रेचन क्रिया का अन्वयव्यतिरेक नहीं है कि हर्र में देवता के होने पर मल निकल जाता है और हरड़ में देवता के न होने पर रेचन नहीं होता है। इस प्रकार अन्वयव्यतिरेक का अनुविधान नहीं करना, क्योंकि प्रकरण प्राप्त हेतु में भी समानरूप से अन्वयव्यतिरेक विद्यमान है परन्तु वीतपन आदि के होने पर हेतु का गमकपन और वीतपन आदि के नहीं होने पर हेतु का अगमकपना (गमक नहीं होना) यह अन्वयव्यतिरेक नहीं बनता है। अन्यथानुपपत्ति के साथ ही अन्वयव्यतिरेक बनता है। अन्यथानुपपत्ति की सत्ता से हेतु का गमकपना प्रयुक्त किया गया है और अन्यथानुपपत्ति की असत्ता से हेतु का अगमकपना है। इस प्रकार हेतु के वीत आदि तीन अवयवों से कुछ प्रयोजन नहीं है क्योंकि वे सभी प्रकारों से हेतु के गमकपने के प्रयोजक अंग नहीं है। तथा उन पूर्ववत् आदि या वीत आदि भेदों में सम्पूर्ण हेतुओं के भेदों का संग्रह भी नहीं हो पाता है। कारण से कार्य का विज्ञान होना और कार्य से कारण का ज्ञान करना तथा कार्यकारण भाव से रहित किसी पदार्थ से नियत दूसरे कार्यकारण भिन्न पदार्थ की ज्ञप्ति हो जाना, ये भी सामान्य से देखे हुए पदार्थों द्वारा अन्य पदार्थों की ज्ञप्ति होना है। यहाँ भी इन तीनों से क्या प्रयोजन है ? कुछ भी नहीं। यदि अन्यथानुपपत्तिरूप नियम से नियत है तब तो उक्त तीन हेतुओं से साध्य की ज्ञप्ति होना निश्चित है, अर्थात् एक अन्यथानुपपत्तिरूप लक्षण के अधिष्ठित हो जाने से ही हेतु का गमकपना निर्णीत होता है और अन्य हेतुओं का भी संग्रह हो जाता है। तथा अनुपलब्धि, उत्तरचर आदि हेतुओं का निवारण नहीं किया जा सकता है। अर्थात् हेतु का मुख्य कारण एक अन्यथानुपपत्ति ही है // 205-206 // 1. सांख्य, २.जैन, 3. छत्र से छाया का ज्ञान होना, 4. धूम से अग्नि का ज्ञान होना, 5. कृतिकोदय से मुहूर्त पीछे रोहिणी के उदय का ज्ञान होना।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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