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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 197 यथा चैवमन्यथानुपपन्नत्वनियमे सति हेतोर्न किंचित्त्रयेण पक्षधर्मत्वादीनामन्यतमेनैव पर्याप्तत्वात्तस्यैवान्यथानुपपन्नस्वभावसिद्धेरिति च तस्मिंस्तत्त्रयस्य हेत्वाभासगतस्येवाकिंचित्करत्वं युक्तं // तद्धेतोस्त्रिषु रूपेषु निर्णयो येन वर्णितः। असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः॥१८१॥ तेन कृतं न निर्णीतं हेतोर्लक्षणमंजसा। हेत्वाभासाव्यवच्छेदि तद्वदेत्कथमन्यथा // 182 // ननु च पक्षधर्मत्वे निर्णयश्चाक्षुषत्वादेरसिद्धप्रपंचस्य प्रतिपक्षत्वेन वर्णितः सपक्षसत्त्वे विरुद्धप्रपंचप्रतिपक्षत्वेन विपक्षासत्त्वे चानैकांतिकविस्तारप्रतिपक्षेणेति कथं हेत्वाभासाव्यवच्छेदि हेतोर्लक्षणं तेनोक्तं येन पारमार्थिक रूपं ज्ञानमितिचेत् अन्यथानुपपन्नत्वस्यैव हेतुलक्षणत्वेनाभिधानादिति ब्रूमः / तस्यैवासिद्धविरुद्धानेकांतिकहेत्वाभासप्रतिपक्षत्वसिद्धेः / न ह्यन्यथानुपपन्नत्वनियमवचनोसिद्धत्वादिसंभवो विरोधात्। इस प्रकार जैसे अन्यथानुपपत्तिरूप नियम के होने पर हेतु का उन तीन रूपों से कुछ भी प्रयोजन नहीं सधता है, क्योंकि पक्षवृत्तित्व आदि तीनों में से कोई एक विपक्षव्यावृत्ति रूप करके ही पूर्ण रूप से कार्य सिद्ध हो जाता है और वही रूप अन्यथानुपपत्तिस्वरूप सिद्ध है। इस प्रकार उस हेतु में उन तीनों रूपों का रहना हेत्वाभासगत होने से कुछ भी कार्य करने वाला नहीं है, अकिंचित्कर है, यह कहना युक्तिपूर्ण है, अकेला अविनाभाव ही सद्धेतु का विधाता है। बौद्धों ने यह कहा था 'हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयो येन वर्णितः। असिद्धविपरीतार्थ• व्यभिचारिविपक्षतः' अर्थात्-असिद्ध दोष की व्यावृत्ति के लिए हेतु का रूप पक्षधर्मत्व माना गया है और विरुद्ध हेत्वाभास को हटाने के लिए सपक्षसत्त्व माना गया है तथा व्यभिचार दोष निवारण करने के लिए विपक्षव्यावृत्तिरूप माना गया है। इस प्रकार तीन हेत्वाभासों के प्रतिपक्षी होने से हेतु का तीन रूपों में निर्णय किया गया है, परन्तु इस कथन से उस बौद्ध ने हेतु का लक्षण निर्दोष रूप से निर्णीत नहीं किया है अन्यथा वह बौद्ध हेत्वाभासों को व्यवच्छेद नहीं करने वाले उस त्रैरूप्य को हेतु का लक्षण कैसे कह देता ? लक्ष्य का जो विशेषण अलक्ष्य से व्यवच्छेद कराने वाला नहीं है, वह निरर्थक है॥१८१-१८२॥ बौद्ध कहते हैं कि शब्द अनित्य है, चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होने से, इस अनुमान में दिये गये चाक्षुषत्व तथा अन्य असिद्ध हेत्वाभासों के प्रपंच का प्रतिकूल होने के कारण हेतु का रूप पक्षधर्मत्व (वृत्ति) में निर्णीत कर कहा गया है तथा विरुद्ध के भेदप्रभेदों का प्रतिपक्षी होने से हेतु का सपक्षसत्त्व में निर्णय कहा है तथा व्यभिचार के विस्तार का प्रतिपक्षपने करके विपक्ष व्यावृत्तिरूप में निर्णय बताया है। इस प्रकार तीनों रूपों में निर्णय करना हेतु का लक्षण है जो कि हेत्वाभासों का पृथग्भाव कर रहा है, अत: हेतु का त्रिरूप लक्षण हेत्वाभासों को व्यवच्छेद करने वाला क्यों नहीं है? जिस अनुमान द्वारा वास्तविकरूप का ज्ञान होता है। इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का निर्दोष लक्षण हम कहते हैं और वह अविनाभाव ही असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक हेत्वाभासों का प्रतिपक्षीरूप करके सिद्ध हो चुका है अर्थात् अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु ही सर्व हेत्वाभास का खण्डन कर देता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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