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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 196 तद्विरुद्धे विपक्षे च तदन्यत्रैव हेतवः। असत्यनिश्चितासत्त्वाः साकल्यानेष्टसाधनाः // 178 // यथा साध्यादन्यस्मिन् विपक्षे निश्चितासत्त्वा अपि हेतवोग्नित्वादयो नेष्टाः सत्त्वादिसाधनास्तेषां साध्याभावलक्षणेपि पक्षे कुतश्चिदनिश्चितासत्त्वरूपत्वात्। तथा साध्याविरुद्धपि विपक्षे निश्चितासत्त्वा अपि धूमादयो नेष्टा अग्न्यादिसाधनास्तेषामग्न्यभावे स्वयमसत्त्वेनानिश्चयात्। ननु च साध्यविरुद्धो विपक्षः साध्याभावरूप एव पर्युदासाश्रयणात् प्रसह्यप्रतिषेधाश्रयणे तु तदभावस्तद्विरुद्धादन्य इति साध्याभावविपक्ष एव विपक्षहेतोरसत्त्वनिश्चयो व्यतिरेको नान्य इत्यत्रोच्यते;साध्याभावे विपक्षे तु योसत्त्वस्यैव निश्चयः। सोविनाभाव एवास्तु हेतो रूपात्तथाह च॥१७९॥ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् / नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् // 180 // उस साध्य से विरुद्ध विपक्ष में और उस साध्य से सर्वथा भिन्न हो रहे विपक्ष में साध्य के न होने पर जिन हेतुओं का अभाव निश्चित नहीं है, वे हेतु सम्पूर्ण रूप से इष्टसाध्य को साधने वाले नहीं हैं अतः प्रथम विकल्प और द्वितीय विकल्प तो प्रशस्त नहीं हैं॥१७८।। जिस प्रकार साध्य से सर्वथा भिन्न हो रहे विपक्ष में असत्त्व का निश्चय रखने वाले भी सत्त्वादिक हेतु अग्नि आदि को साधने वाले इष्ट नहीं माने गए हैं क्योंकि उन हेतुओं के साध्याभाव लक्षण का विपक्ष में किसी भी कारण से अविद्यमान रहना निश्चित नहीं है; उसी प्रकार साध्य से विरुद्ध विपक्ष में निश्चित है असत्त्व जिनका, ऐसे धूम आदि भी अग्नि आदि को साधने के लिए सद्धेतु इष्ट नहीं माने गये हैं, क्योंकि, उन धूम आदिकों का अग्नि के न होने पर स्वयं अविद्यमानपन का निश्चय नहीं हुआ है, अर्थात् अविनाभाव का निश्चय हुए बिना विपक्ष व्यावृत्ति का कुछ भी मूल्य नहीं है। शंका : विपक्ष से भिन्न सदृश को ग्रहण करने वाले और पद के साथ नज्' का योग रखने वाले पर्युदास का आश्रय करने से साध्य से विरुद्ध विपक्ष साध्याभावस्वरूप ही है। तथा सर्वथा निषेध को करने वाले और क्रिया के साथ नञ् का योग धारने वाले प्रसज्य अभाव का आश्रय लेने से तो उस साध्य का अभाव उसके विरुद्ध से अन्य हो जाता है। इस प्रकार साध्याभाव ही विपक्ष है और विपक्ष में हेतु के नहीं रहने का निश्चय कर लेना व्यतिरेक है। इससे पृथक् कोई व्यतिरेक नहीं माना गया है अर्थात् साध्य के नहीं रहने पर हेतु का नहीं रहना व्यतिरेक है। समाधान : इस प्रकार बौद्ध की शंका का अब यहाँ आचार्य प्रत्युत्तर देते हैं कि साध्य के अभावरूप विपक्ष में जो हेतु की असत्ता का निश्चय है, यदि यही व्यतिरेक है, तब तो वह अविनाभाव ही हेतु का रूप है (अविनाभाव से भिन्न अन्य हेतु नहीं है)। सो ही कहा है कि जहाँ अन्यथानुपपत्ति विद्यमान है, वहाँ पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति रूप तीन से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ नहीं, अकेली अन्यथानुपपत्ति ही पर्याप्त है और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है, वहाँ पक्ष धर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति से भी क्या प्रयोजन है ? अर्थात् अविनाभाव के बिना तीनों रूपों के होने पर भी कुछ लाभ नहीं है, अविनाभाव ही हेतु का प्राण है।।१७९-१८०॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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