________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 198 न चैकेन सकलप्रतिपक्षव्यवच्छेदे सिद्धे तदर्थं त्रयमभिदधतां तदेकं समर्थं लक्षणं हेतोञ्जतं भवति तदेव त्रिभिः स्वभावैरसिद्धादीनां त्रयाणां व्यवच्छेदकमतस्तानि त्रीणि रूपाणि निश्चितान्यनुक्तानि। तदवचने विशेषतो हेतुलक्षणसामर्थ्यस्यावचनप्रसंगात्। तदुक्तौ तु विशेषतो हेतुलक्षणं ज्ञातमेवेतिचेत् न, अबाधितविषयत्वादीनामपि वचनप्रसंगात्। तेषामनुक्तौ बाधितविषयत्वादिव्यवच्छेदासिद्धेः। निश्चितत्रैरूप्यस्य हेतोर्बाधितविषयत्वाद्यसंभवात्तद्वचनादेव तद्व्यवच्छेदसिद्धेर्नाबाधितविषयत्वादिवचनमिति चेत् न, हेतोः पंचभिः स्वभावैः पंचानां पक्षव्यापकत्वादीनां व्यवच्छेदकत्वाद्विशेषतल्लक्षणस्यैव कथनात् अन्यथा तदज्ञानप्रसंगात्। तद्विशेषविवक्षायां तु पंचरूपत्ववत् त्रिरूपत्वमिति न वक्तव्यं सामान्यतोन्यथानुपपन्नत्ववचनेनैव पर्याप्तत्वात् , रूपत्रयमंतरेण अन्यथानुपपत्तिरूप नियम के कहने पर असिद्धत्व, विरुद्धत्व, व्यभिचारित्व, बाधितत्व, सत्प्रतिपक्षत्व, इन हेत्वाभासों की सम्भावना नहीं है क्योंकि ये विरुद्ध हैं (जहाँ अविनाभाव है, वहाँ हेत्वाभास नहीं रह सकता है)। एक ही अविनाभाव सम्बन्ध से सम्पूर्ण हेत्वाभासरूप प्रतिपक्षियों का व्यवच्छेद सिद्ध हो जाने पर उसके लिए तीन रूपों के हेतु का लक्षण कथन करने वाले (बौद्ध) को हेतु का एक समर्थलक्षण ज्ञात नहीं है, क्योंकि वह एक अविनाभाव ही अपने तीन स्वभावों के द्वारा असिद्ध आदि तीन हेत्वाभासों का व्यवच्छेद कर देता है, अत: हेतु के निश्चित हुए वे तीन रूप नहीं कहे हैं। बौद्ध : उन तीन रूपों का कथन नहीं करने पर विशेषरूप से हेतु के लक्षण की सामर्थ्य का कथन नहीं करने का प्रसंग आता है किन्तु उन तीनों रूपों का कथन कर देने पर विशेषरूप से हेतु का लक्षण ज्ञात. हो ही जाता है। (अतः विशेषरूप से व्युत्पत्ति कराने के लिए वे तीन रूप कह दिये हैं)। जैन - ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा कहने पर अबाधित विषय, असत्प्रतिपक्षपना, आश्रयासिद्धि रहितपना, आदिरूपों का भी कथन करने का प्रसंग आता है, यदि उन अबाधित आदि रूपों को नहीं कहोगे तो अग्नि अनुष्ण हैप्रमेय होने से, इत्यादि हेत्वाभासों का व्यवच्छेद सिद्ध नहीं हो सकेगा। बौद्ध कहता है कि जिस हेतु के त्रैरूप्य का निश्चय है, उस हेतु के बाधित विषयपना या सत्प्रतिपक्षपना आदि दोषों की सम्भावना ही नहीं है अतः उस त्रैरूप्य के कथन करने से ही उन बाधितपन आदि हेतु दोषों का व्यवच्छेद सिद्ध हो ही जाता है। अतः अबाधितविषयत्व आदि रूप नहीं कहे गये हैं। __ जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नहीं कहना चाहिए, क्योंकि हेतु के पाँच स्वभावों के द्वारा ही पक्ष अव्यापकत्व आदि हेतु दोषों का निराकरण हो जाता है अतः विशेषरूप से उन पाँचों को ही हेतु का लक्षण कहना चाहिए। अन्यथा उन रूपों के अज्ञान होने का प्रसंग आयेगा। तथा हेतु के आवश्यक विशेषरूप की विवक्षा होने पर बौद्धों द्वारा जैसे नैयायिकों के द्वारा कथित हेतु का पंचरूपपना स्वीकार नहीं किया जाता है,उसी प्रकार तीनरूपपना भी स्वीकार नहीं करना चाहिए। सामान्यरूप से एक अन्यथानुपपत्ति के वचन के द्वारा ही हेतु का पूरा कार्य सिद्ध हो जाता है (अन्य तीन या पाँच से क्या प्रयोजन है ?) / बौद्ध : तीनों रूपों के बिना हेतु के असिद्ध आदि तीन दोषों का व्यवच्छेद हो नहीं सकता है और उस हेतु में तीन रूपों के सद्भाव होने से हेत्वाभासों का व्यवच्छेद हो जाता है अत: तीन रूप का कथन करना