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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 190 तच्च कृत्तिकोदयादिषु साध्यधर्मिण्यसत्स्वपि यथा प्रतीतिर्विद्यत एवेति किमाकाशादिधर्मिपरिकल्पनया प्रतीत्यतिलंघनापरयातिप्रसंगिन्या। तथा च न परिकल्पितं पक्षधर्मत्वं हेतोर्लक्षणं नाप्यन्वय इत्यभिधीयते // निःशेषं सात्मकं जीवच्छरीरं परिणामिना। पुंसा प्राणादिमत्त्वस्य त्वन्यथानुपपत्तितः // 163 // सपक्षसत्त्वशून्यस्य हेतोरस्य समर्थनात्। नूनं निश्चीयते सद्भिर्नान्वयो हेतुलक्षणम् // 164 // न चादर्शनमात्रेण व्यतिरेकः प्रसाध्यते। येन संशयहेतुत्वं रागादौ वक्तृतादिवत् // 165 // समवाय सम्बन्ध से शाखाओं में वृक्ष है और समवेतत्व सम्बन्ध से वृक्ष में शाखाएँ हैं। इसी प्रकार अविनाभाव सम्बन्ध से साध्य में हेतु रहता हुआ साध्य का धर्म हो जाता है)। साध्य को संयोग सम्बन्ध से अधिकरण बनाकर उसमें रहने वाला हेतु ही साध्य धर्म बने, यह कोई नियम नहीं है जिससे कि साध्यरूपी धर्म पुन: धर्मी बन जाए, अतः साध्य के साथ अविनाभाव रखने वाला हेतु ही साध्यरूप पक्ष का धर्म है ऐसी विवक्षा होने पर स्याद्वादियों के हेतु का लक्षण पक्षधर्मत्व विरोध रहित सिद्ध होता है, तथा, स्पष्टरूप से अविनाभावीपन का ही पक्षवृत्तित्व से कथन किया है। जैसे वह पक्ष धर्मत्व कृत्तिकोदयरूप साध्यधर्म में नहीं रहने पर भी हेतु की प्रतीति है। ऐसी दशा में आकाश, काल आदि को धर्मीपन की कल्पना करने से क्या लाभ है? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। उसी प्रकार कृत्तिकोदय के लिए आकाश आदि की कल्पना भी प्रतीति का उल्लंघन करने में तत्पर अतिप्रसंग दोष से युक्त है। तथा प्रतिवादी के द्वारा कल्पित पक्षवृत्तित्व हेतु का लक्षण सिद्ध नहीं है व हेतु का दूसरा स्वरूपअन्वय भी हेतु का निर्दोष लक्षण नहीं है। अर्थात् सपक्ष सत्त्व हेतु का लक्षण निर्दोष नहीं है उसी को कहते जीवित पुरुषों के सम्पूर्ण शरीर उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप परिणाम करने वाले पुरुष के द्वारा आत्मा सहित हैं, क्योंकि श्वास, उच्छ्वास आदि प्राणादिमत्त्व अन्यथा (यानी आत्मसहितपने के बिना) सिद्ध नहीं हो सकता है। (जो सात्मक नहीं है, वह प्राण आदि से युक्त नहीं है। जैसे घट, पट आदि हैं। जो-जो प्राणादिमान हैं, वे-वे सात्मक हैं, ऐसा अन्वय दृष्टान्त यहाँ नहीं मिलता है क्योंकि सभी प्राणादिमान आत्मा जीवित शरीरों के अन्तर्गत हैं। पक्ष से बहिर्भूत सपक्ष होना चाहिए), अत: सपक्ष सत्त्व से रहित भी इस प्राणादिमत्व हेतु का समर्थन करने से सज्जन पुरुषों के द्वारा यह अवश्य निश्चित कर लिया जाता है कि हेतु का लक्षण अन्वय (यानी सपक्षसत्त्व) नहीं है अर्थात् सपक्षसत्त्व हेतु का लक्षण नहीं है॥१६३-१६४॥ केवल नहीं दीखने से ही किसी का अभाव सिद्ध नहीं होता जिससे हेतु संदिग्ध व्यभिचारी हो जाता है, जैसे कि बुद्ध में राग, द्वेष आदि की सिद्धि करने पर वक्तापन, पुरुषपन, आदि हेतु संदिग्ध व्यभिचारी हो जाते हैं (अर्थात् बुद्ध रागादिमान् है-वक्ता होने से, पुरुष होने से परन्तु वक्ता और पुरुष के होने पर भी वीतरागपना संभव है, अत: जैसे रागादि को साधने में वक्तापन हेतु संदिग्ध व्यभिचारी है ऐसा प्राणादिमत्व हेतु संदिग्ध नहीं है)। उस आत्मा के विचार, शक्ति, बोलना, चलना आदि कार्यों का भस्म आदि में अभाव देखा जाने से उनमें प्राण आदि का अभाव सिद्ध है। इस प्रकार साध्य के नहीं होने पर हेतु का नहीं रहना
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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