________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 189 पूर्वोपलब्धाकाशादेदृष्टांतस्य सद्भावादन्वयः सिद्ध्यतीतिचेत् , पूर्वोपलब्धजगतो दृष्टांतस्य सिद्धेश्चाक्षुषत्वयोगित्वादेरन्वयोस्तु विशेषाभावात् तथाप्यस्याविनाभावासंभवादगमकत्वेविनाभावस्वभावमेव पक्षधर्मत्वं गमकत्वांगं लिंगस्य लक्षणं। तथा च न धर्मधर्मिसमुदायः पक्षो नापि तत्तद्धर्मी तद्धर्मत्वस्याविनाभावस्वभावत्वाभावात्। किं तर्हि, साध्य एव पक्ष इति प्रतिपत्तव्यं तद्धर्मत्वस्यैवाविनाभावित्वनियमादित्युच्यते॥ साध्यः पक्षस्तु नः सिद्धस्तद्धर्मो हेतुरित्यपि। तादृक्षपक्षधर्मत्वसाधनाभाव एव वै॥१६२॥ ___ कथं पुनः साध्यस्य धर्मस्य धर्मो हेतुस्तस्याधर्मित्वप्रसंगादिति चेत् न, तेनाविनाभावात्तस्य धर्म इत्यभिधानात् / न हि साध्याधिकरणत्वात्साध्यधर्मः हेतुर्येन साध्यधर्मा धर्मी स्यात्। ततः साध्याविनाभावी हेतुः पक्षधर्म इति स्याद्वादिनामेव पक्षधर्मत्वं हेतोर्लक्षणमविरुद्धं स्पष्टमविनाभावित्वस्यैव तथाभिधानात् / ली है? हेतु और साध्य से सहित पूर्व में दृष्ट आकाश आदि दृष्टान्त विद्यमान हैं? अत: कृत्तिकोदय का शकटोदय के साथ अन्वय सिद्ध हो जाता है, ऐसा कहने पर तो चाक्षुषत्व, शब्दानित्यत्व आदि से सहित पहले जान लिये गये जगत् को दृष्टान्तपना सिद्ध होने से चाक्षुषत्वयोगीपन, महानसधूमसे सहितपन,आदि हेतुओं का भी अन्वयत्व बन जाता है, क्योंकि इनमें कोई विशेषता नहीं है, फिर भी यदि अविनाभाव का असम्भव हो जाने से इन चाक्षुषत्व, महानसधूम आदि को शब्द के अनित्यत्व या समुद्र में अग्निरूप साध्यों का साधकपना नहीं है, ऐसा मानोगे तब तो अविनाभावस्वरूप ही पक्षवृत्तित्व सिद्ध ही है और वह अन्यथानुपपत्ति ही हेतु के ज्ञापकपन का अङ्ग ही निर्दोष लक्षण है। ... इस प्रकार धर्म और धर्मी का समुदाय रूप पक्ष नहीं बनता है (यानी साध्यरूपी धर्म और साध्यवान् पर्वत आदि धर्मी का समुदाय भी पक्ष सिद्ध नहीं होता है)। तथा, उस हेतु और साध्य से विशिष्ट धर्मी भी पक्ष नहीं है, क्योंकि उसमें पक्ष में रहने रूप अविनाभाव स्वभाव का अभाव है। शंका : पक्ष किसे कहते हैं ? समाधान : अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु से साधने योग्य शक्य, अभिप्रेत, अप्रसिद्धरूप साध्य ही पक्ष है, ऐसा समझना चाहिए। ऐसे उस पक्ष का धर्मपना ही अविनाभावीरूप नियम हो सकता है। इसी बात का स्पष्ट निरूपण किया जाता है। ... हमारे स्याद्वाद मत में प्रयोगकाल में साधने योग्य साध्य ही पक्ष माना गया है और उस साध्य का धर्म हेतु सिद्ध है, यह भी अभीष्ट है। ऐसा होने पर हेतु के पक्षवृत्तित्वरूप साधने का निश्चय से अभाव ही है। अर्थात् पक्षधर्मत्व हेतु का लक्षण घटित नहीं होता है॥१६२॥ __उस साध्य धर्म का धर्म हेतु कैसे हो सकता है ? क्योंकि ऐसा मानने पर उस साध्य के अधर्मीपन का प्रसंग आता है-ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि उस साध्य के साथ हेतु का अविनाभाव होने से उस साध्य का धर्म हेतु है, ऐसा कह दिया जाता है (संयोग सम्बन्ध से पर्वत में अग्नि रहती है, किन्तु निष्ठत्व सम्बन्ध से अग्नि में पर्वत रहता है। विषयता सम्बन्ध से अर्थ में ज्ञान रहता है किन्तु विषयिता संबंध से ज्ञान में अर्थ रहता है। जन्यत्व सम्बन्ध से बेटे पुत्र का पिता है और जनकत्व सम्बन्ध से पिता का पुत्र है।