________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 185 भावाभावात्मको नार्थः प्रत्यक्षेण यदीक्षितः / कथं ततो विकल्पः स्याद्भावाभावावबोधनः॥१५२॥ नीलदर्शनतः पीतविकल्पो हि न ते मतः। भ्रांतेरन्यत्र तत्त्वस्य व्यवस्थितिमदीप्सितः // 153 // तद्वासनाप्रबोधाच्चेद्भावाभावविकल्पना। नीलादिवासनोबोधात्तद्विकल्पवदिष्यते // 154 // भावाभावेक्षणं सिद्धं वासनोबोधकारणं / नीलादिवासनोद्बोधहेतुतदृष्टिवत्ततः // 155 // यथा नीलादिदर्शनं नीलादिवासनोबोधस्य कारणमिष्टं तथा भावाभावोभयाद्यर्थदर्शनं तद्वासनाप्रबोधस्य स्वयमेषितव्यमिति भावाद्यर्थस्य प्रत्यक्षतः परिच्छेदः सिद्धः॥ यत्रैव जनयेदेनां तत्रैवास्य प्रमाणता। क्वान्यथा स्यादनाश्वासाद्विकल्पस्य समुद्भवे // 156 // __ जिस प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा अस्तित्व, नास्तित्व आत्मक अर्थ दृष्टिगोचर नहीं होते हैं तो फिर उस प्रत्यक्ष से भावों और अभावों को समझाने वाला विकल्प ज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकेगा ? अर्थात् बौद्धों के यहाँ प्रत्यक्ष के द्वारा निर्विकल्पक रूप से विषय किए गए ही अर्थों में निर्णयरूप विकल्पज्ञान की उत्पत्ति मानी गई है। अन्यत्र भ्रान्ति ज्ञान से तत्त्व की व्यवस्था चाहने वाले बौद्धों के मत में नील के निर्विकल्पकज्ञान से पीत के विकल्पज्ञान का होना नहीं माना गया है॥१५२-१५३॥ : उन भाव आदि की वासनाओं के जाग जाने से यदि भाव, अभावों का विकल्प करोंगे तो नील, पीत आदि स्वलक्षणों का प्रत्यक्ष कर पीछे नील आदि की लगी हुई वासनाओं का प्रबोध हो जाने से जैसे उन नील आदि का विकल्पज्ञान होना इष्ट किया गया है, उसी के समान भाव और अभावों का प्रत्यक्ष करना ही उन भाव अभावों का विकल्पज्ञान कराने के लिए उपयोगी भूत वासनाओं के प्रबोध कराने का कारण होगा। जैसे कि नील आदि का दर्शन उन नील आदि की आत्मा में पूर्व में लगी हुई वासनाओं का प्रबोधक है। इस कारण बौद्धों के यहाँ निर्विकल्पक प्रत्यक्ष द्वारा भाव-अभाव आदि धर्मों का दीख जाना उनकी वासनाओं के उद्बोध का कारण सिद्ध हो जाता है॥१५४-१५५।। जिस प्रकार नील आदि की वासनाओं के प्रबोध का कारण नील आदि का प्रत्यक्ष दर्शन माना गया है, उसी प्रकार भाव, अभाव, उभय, अवक्तव्य आदि धर्मस्वरूप अर्थ का प्रत्यक्ष भी उन भाव आदि की वासनाओं के जगाने का कारण स्वयम इष्ट कर लेना पडेगा। इस प्रकार भाव आदि स्वरूप अर्थ की प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञप्ति होना सिद्ध होता है। (बौद्ध) यदि निर्विकल्पकज्ञान जिस अंश में वासनाओं के द्वारा इस सविकल्पक बुद्धि को उत्पन्न कराता है तो उसी विषय को जानने में इस प्रत्यक्ष का प्रमाणपना विकल्पबुद्धि द्वारा व्यवस्थित किया जाता है। अन्यथा (यानी भाव आदि का प्रत्यक्षज्ञान होना न मानने पर) प्रमाणता कैसे व्यवस्थित हो सकेगी? विकल्पज्ञान की समीचीन उत्पत्ति होने में कोई विश्वास नहीं रहेगा (यानी प्रत्यक्ष की भित्ति पर ही विकल्प ज्ञान की उत्पत्ति मानने में तो श्रद्धा हो सकती है, अन्यथा नहीं)॥१५६॥