SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 186 यदि हि भावादिविकल्पवासनायाः प्रबोधकारणमाभोगाद्येव न पुनर्भावादिदर्शनं तदा नीलादिविकल्पवासनयापि न नीलादिदर्शनं प्रबोधनिबंधनमाभोगशब्दयोरेव तत्कारणत्वापत्तेः। एवं च नीलादौ दर्शनाभावेपि विकल्पवासनायाः संभवात् सर्वत्र प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पस्य सामर्थ्यात्प्रत्यक्षस्य प्रमाणतावस्थापनेऽनाश्वास एव स्यात् / स्वलक्षणदर्शनप्रभवो विकल्पस्तत्प्रमाणताहेतुर्न सर्व इति चेन्नान्योन्याश्रयप्रसंगात्। तथाहि-सिद्धे स्वलक्षणदर्शनप्रभवत्वे विकल्पस्य ततस्तद्दर्शनप्रमाणतासिद्धिः तत्सिद्धौ च स्वस्य स्वलक्षणदर्शनप्रभवत्वसिद्धिरिति नान्यतरस्यापि तथोर्व्यवस्था। स्वलक्षणदर्शनप्रभवत्वं नीलादिविकल्पस्य स्वसंवेदनादेव सिद्धं सर्वेषां विकल्पस्य प्रत्यात्मवेद्यत्वात् ततो नान्योन्याश्रय इति चेत्, तर्हि भावाभावोभयादिविकल्पस्याप्यलिंगजस्य शब्दजस्य च भावादिदर्शनप्रभवत्वं स्वसंवेदनादेव कुतो न ___ यदि भावादि विकल्प वासनाओं को जागृत करने का कारण आभोग आदि ही है; भाव अभाव आदि का प्रत्यक्ष करना वासना का प्रबोधक नहीं है, तब तो नील आदि की विकल्प वासनाओं का प्रबोधक नीलादि दर्शन भी नहीं हो सकते। अपितु परिपूर्णता और शब्द को ही उन नील आदि की वासनाओं का प्रबोध करने में कारणता प्राप्त हो जायेगी। इस प्रकार नील आदि में दर्शन का अभाव होने पर भी विकल्प वासनाओं की उत्पत्ति की संभावना है। सर्वत्र प्रत्यक्ष के पीछे होने वाले विकल्प ज्ञान के सामर्थ्य से प्रत्यक्ष की प्रमाणता के व्यवस्थापन में अविश्वास ही बना रहेगा। स्वलक्षण निर्विकल्प दर्शन (प्रत्यक्ष) से उत्पन्न विकल्प ज्ञान उस प्रत्यक्ष प्रमाण का व्यवस्थापक हेतु है। सर्व ही विकल्प ज्ञान प्रत्यक्षजन्य तथा प्रत्यक्षों की प्रमाणता का व्यवस्थापक नहीं है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है. क्योंकि ऐसा मानने पर अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। जैनाचार्य उसी को अनुमान द्वारा सिद्ध करते हैं, उत्तर कालवर्ती विकल्प ज्ञान का स्वलक्षण दर्शन से उत्पन्न होना सिद्ध हो जाने पर विकल्प ज्ञान से उसके पूर्ववर्ती जनक प्रत्यक्ष का प्रमाणपना सिद्ध होगा और उस पूर्ववर्ती प्रत्यक्ष का प्रमाणपना सिद्ध हो जाने पर स्वयं विकल्प ज्ञान के स्वलक्षण प्रत्यक्ष से उत्पन्न होना सिद्ध होगा। इस प्रकार उन दोनों में से किसी एक की भी व्यवस्था न हो सकेगी। नील आदि के विकल्पज्ञान का स्वलक्षण प्रत्यक्ष से उत्पन्न हो जाना तो स्वयम् विकल्प को जानने वाले स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ही सिद्ध हो जाता है, क्योंकि सम्पूर्ण जीवों के विकल्प ज्ञानों का प्रत्येक आत्मा में अपने-अपने स्वसंवेदन से जानने की योग्यता निर्णीत है अत: परस्पराश्रय दोष नहीं आता है। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर स्याद्वादी कहते हैं कि भाव, अभाव, उभय आदि सात धर्मों को जानने वाले विकल्पज्ञान का भी जो कि लिङ्गजन्य ज्ञान नहीं है और जो विकल्पज्ञान शब्द से भी जन्य नहीं है, उसका भी भाव आदि के दर्शन से उत्पत्ति स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ही क्यों नहीं सिद्ध होगी ? अवश्य होगी क्योंकि इनमें सर्वथा विशेषता का अभाव है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy