________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 184 विरोधान्नोभयात्मादिरर्थश्चेन्न तथेक्षणात्। अन्यथैवाव्यवस्थानात्प्रत्यक्षादिविरोधतः // 149 // निराकृतनिषेधो हि विधिः सर्वात्मदोषभाक् / निर्विधिश्च निषेधः स्यात्सर्वथा स्वव्यथाकरः // 150 // ननु च यथा भावाभावोभयाश्रितस्त्रिविधो धर्मः शब्दविषयोनादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठित एव न बहि: स्वलक्षणात्मकस्तथा स्यादवक्तव्यादि परमार्थतोसन्नेवार्थक्रियारहितत्वान्मनोराज्यादिवत् न च सर्वथा कल्पितोर्थो मानविषयो नाम येन तद्भेदात्सप्तविधो हेतुरापाद्यते इत्यत्रोच्यते;नानादिवासनोद्भुतविकल्पपरिनिष्ठितः। भावाभावोभयाद्यर्थं स्पष्टं ज्ञानेवभासनात् // 151 // शब्दज्ञानपरिच्छेद्योपि पदार्थोस्पष्टतयावभासमानोपि नैकांतत: कल्पनारोपितस्वार्थक्रियाकारित्वान्निबधिमनुभूयते किं पुनरध्यक्षे स्पष्टमवभासमानो भावाभावोभयादिरर्थ इति परमार्थसन्नेव // पदार्थ स्वांशों की विधि और परांशों के निषेध से युक्त हैं)। निषेधों का सभी प्रकार निराकरण करने वाली विधि सर्व पदार्थस्वरूप हो जाने के दोष को धारण करने वाली है। तथा विधि से सर्वथा रहित निषेध का एकान्त भी सभी प्रकार अपनी व्यथा को करने वाला है अर्थात्-सबका निषेध मानने पर इष्ट पदार्थ का जीवन अशक्य है॥१४९-१५०॥ शंका : शब्द के द्वारा भाव, अभाव और उभय का आश्रय लेकर उत्पन्न हुए तीन प्रकार के धर्म जिस प्रकार अनादिकालीन मिथ्यावासना से उत्पन्न हुए विकल्पज्ञान में स्थित होकर शब्द के वाच्य अर्थ बनते हैं, किन्तु वे तीनों धर्म वस्तुतः बहिरंगस्वलक्षण स्वरूप नहीं हैं। मनोराज्यादि समान अर्थक्रिया रहित होने से कथंचित् अवक्तव्य आदि चार धर्म भी परमार्थ रूप से विद्यमान नहीं हैं। अतः सभी प्रकार से कल्पित कर लिया गया सात भंग रूप अर्थ तो प्रमाणों का गोचर कैसे भी नहीं है जिससे कि उन सात धर्मों के भेद से हेतु का सात प्रकार से आपदन किया जा सके। समाधान : इस प्रकार बौद्धों के कथन करने पर आचार्य उत्तर देते हैं- . भाव, अभाव, उभय, अवक्तव्य, अस्तिअवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, अस्तिनास्तिअवक्तव्य इन सात धर्मों से तदात्मक हो रहा अर्थ वस्तुभूत है। बौद्धों के अनुसार अनादिकाल की वासनाओं से उत्पन्न कोरी कल्पनाओं में परिनिष्ठित पदार्थ नहीं है, क्योंकि प्रमाणज्ञान में स्पष्ट रूप से भाव (अस्तित्व) आदि धर्मस्वरूप अर्थ प्रतिभासित होता है॥१५१॥ श्रुतज्ञान द्वारा ज्ञात भी पदार्थ अविशदरूप से प्रतिभासमान है, एकान्त कल्पना से कल्पित नहीं है, क्योंकि अपनी वास्तविक अर्थक्रियाओं के द्वारा बाधारहित पदार्थ अनुभव में आ रहा है, तो फिर प्रत्यक्षज्ञान में स्पष्ट रूप से प्रकाशित भाव, अभाव, उभय आदि धर्मस्वरूप अर्थ का तो कहना ही क्या है! अर्थात् प्रत्यक्ष से स्पष्ट प्रतिभासित अर्थ वस्तुभूत ही है। इस प्रकार अस्तित्व आदिक धर्मों से तदात्मक अर्थ परमार्थ रूप से यथार्थ में विद्यमान है, कपोलकल्पित नहीं। अतः ‘अनादिवासनोद्भूतविकल्पपरिनिष्ठितः। शब्दार्थस्त्रिविधो धर्मो भावाभावोभयाश्रित:'- यह बौद्धों का कथन ठीक नहीं है।