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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 183 न हि द्रव्यक्षेत्रकालभावप्रत्यासत्तय: सर्वत्र कार्यकारणभावसंयोगादिरूपाः सत्योप्यविनाभावरहिता न दृश्यते ततः संबंधवशादपि सामान्यतोन्यथानुपपत्तिरेकैवेति तल्लक्षणमेकं लिंगमनुमंतव्यं। विशेषतोपि संबंधद्वयस्य तादात्म्यतजन्माख्यस्याव्यवस्थानात्। संयोगादिसंबंधषट्कवत्तदव्यवस्थाने च कुतो लिंगेयत्तानियम इति तद्विशेषविवक्षायामपि न परैरिष्टा लिंगसंख्यावतिष्ठते विशेषाणां बहुत्वात्। परेष्टसंबंधसंख्यामतिक्रामंतो हि संबंधविशेषास्तदिष्टलिंगसंख्यां विघटयंत्येव स्वेष्टविशेषयोः शेषविशेषाणामंतर्भावयितुमशक्तेः विषयस्य विधिप्रतिषेधरूपस्य भेदाल्लिंगभेदस्थितिरित्यपीष्टं तत्संख्याविरोध्येव। यस्मात्यथैवास्तित्वनास्तित्वे भिद्येते गुणमुख्यतः। तथोभयं क्रमेणेष्टमक्रमेण त्वबाध्यता // 147 // अवक्तव्योत्तरा शेषास्त्रयो भंगाश्च तत्त्वतः। सप्त चैवं स्थिते च स्युस्तद्वशाः सप्तहेतवः // 148 // की व्यवस्था नहीं होने पर हेतुओं की इतनी संख्या के परिमाण को अवधारण करने का नियम कैसे सिद्ध हो सकता है? इस प्रकार हेतुओं के विशेषों की विवक्षा होने पर भी दूसरे प्रतिवादियों द्वारा इष्ट की गई हेतु संख्या निर्णीत नहीं होती है क्योंकि व्याप्य-व्यापक, पूर्वचर, उत्तरचर, आदि को सिद्ध करने वाले हेतुओं के विशेष सम्बन्ध बहुत से हैं। वे विशेष सम्बन्ध दूसरे प्रतिवादियों से इष्ट की गई हेतु संख्या का अतिक्रमाण करके उनके द्वारा अभीष्ट हेतुसंख्या के नियम का विघटन करते ही हैं क्योंकि अपने इष्ट किये गये तादात्म्य और तदुत्पत्तिरूप विशेषों में अवशिष्ट बचे हुए पूर्वचर आदि हेतुओं के विशेष भेदप्रभेदों का अंतर्भाव नहीं किया जा सकता। तथा साध्यरूप विषय के विधि और निषेधरूप को साधने वाले भेद से हेतु के विधिसाधक और निषेधसाधकइन दो भेदों की व्यवस्था मानते हैं तो उस बौद्ध की तादात्म्य तदुत्पत्तिरूप दो संख्या का तो विरोधी ही है। अर्थात्-विधिसाधक या निषेधसाधक यह दो संख्या तो ठीक है, किन्तु तादात्म्य और तदुत्पत्ति ये दो ही भेद हैं-ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार अस्तित्व और नास्तित्व ये दो धर्म गौण और मुख्यरूप से पृथक्-पृथक् हैं उसी प्रकार क्रम से कथन करने पर अस्तित्व और नास्तित्व को मिलाकर उभयनामका तीसरा भंग इष्ट है। तथा क्रम से रहित दोनों धर्मों की युगपत् (यानी एक ही काल में विवक्षा होने पर) अवक्तव्य नामक चौथा धर्म माना गया है (क्योंकि एक शब्द में एकही समय में अनेक धर्मों का कथन करने का सामर्थ्य नहीं है)। इन कथित चार धर्मों से अवशेष रहे अस्ति अवक्तव्य 5 नास्ति अवक्तव्य 6 और अस्तिनस्ति अवक्तव्य 7 ये पृष्ठ भाग में अवक्तव्यपद को धारण किये हुए तीन भंग भी वास्तविक रूप से माने गये हैं। इस प्रकार सात भंगों के स्थित हो जाने पर उन सात भंगों के अधीन होकर वर्तने वाले सात हेतु होने चाहिए॥१४७-१४८॥ अस्ति और नास्ति इन दो धर्मों का परस्पर में विरोध होने के कारण उभयात्मक तीसरा धर्म नहीं बन सकता। अत: उभयस्वरूप या अस्तिअवक्तव्यस्वरूप कोई पदार्थ नहीं है। ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि अनेक धर्मों से तदात्मक हो रहे पदार्थों का दर्शन हो रहा है। अन्यथा एकान्त रूप से पदार्थ की व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है, तथा एकान्तवाद में प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरोध आता है (क्योंकि सभी
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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