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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 182 कार्यकारणभावयोरसंयोगादिरूपकार्योपकारकभावमंतरेण क्वचिदप्यभावादिति चेन्न, नित्यद्रव्यसंयोगाद्देशांतरेणैव भावात्। न च नित्यद्रव्यं न संभवेत् क्षणिकपरिणामवत्तस्य प्रमाणसिद्धत्वात् तदवश्यं सर्वसंबंधव्यक्तीनां व्यापकस्तदुत्पत्तितादात्म्याभ्यामन्य एवाभिधातव्यो योग्यतालक्षण इत्याह;योग्यताख्यश्च संबंध: सर्वसंबंधभेदगः। स्यादेकस्तद्वशाल्लिंगमेकमेवोक्तलक्षणम् // 144 // विशेषतोपि संबंधद्वयस्यैवाव्यवस्थितेः। संबंधषट्कवन्नातो लिंगेयत्ता व्यवस्थितेः॥१४५॥ तद्विशेषविवक्षायामपि संख्यावतिष्ठते / न लिंगस्य परैरिष्टा विशेषाणां बहुत्वतः॥१४६॥ संबंधत्वसामान्यं सर्वसंबंधभेदानां व्यापकं न योग्यताख्यः संबंध इत्यचोद्यं, प्रत्यासत्तेरिह योग्यतायाः सामान्यरूपयोः स्वयमुपगमात्। सैवान्यथानुपपत्तिरित्यपि न मंतव्यं प्रत्यासत्तिमात्रे क्वचित्सत्यपि तदभावात्। ____ उस एक सम्बन्ध के वश से एक ही प्रकार का हेतु है, जिसका कि 'अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनम्' इस कारिका द्वारा लक्षण कह दिया गया है॥१४४॥ अर्थात् सभी हेतुओं के लक्षण में एक ही लक्षण श्रेष्ठ है कि साध्य के अविनाभाव, जिसका साध्य अविनाभाव नहीं है वह हेतु-हेत्वाभास है। वैशेषिकों के माने गये संयोग आदि छह सम्बन्धों के समान बौद्धों के द्वारा माने गये विशेष रूप से भी दो सम्बन्धों की भी व्यवस्था नही हो पाती है। अत: इन तादात्म्य और तदुत्पत्ति से हेतुओं के इतने परिणाम की ठीक व्यवस्था नहीं हुई // 145 // हेतुओं के विशेष भेदों की विवक्षा करने पर भी दूसरों के द्वारा मानी गयी हेतु की दो या तीन संख्या निर्णीत नहीं होती है। क्योंकि हेतुओं के भेद-प्रभेद बहुत से हैं। वे सभी दो आदि संख्याओं में गर्भित नहीं हो सकते हैं॥१४६॥ भावार्थ : अन्यथानुपपत्तिलक्षणवाला हेतु एक ही है। विशेष रूप से यदि उसके भेद किये जायेंगे तो उपलब्धि, अनुपलब्धि या विधिसाधक आदि भेद भी हो सकते हैं। ___सामान्यरूप से सम्बन्धत्व धर्म ही सम्पूर्ण संबंध के भेद-प्रभेदों का व्यापक है। बौद्ध : योग्यतानामक सम्बन्ध तो सर्वव्यापक नहीं है। जैन: ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि इस प्रकरण में सामान्यरूप से योग्यता को ही सम्बन्धपने से स्वयं प्रतिवादी ने स्वीकार किया है। नियत, अनियत सभी सम्बन्धों में व्याप रही वह योग्यता ही अन्यथानुपपत्ति है, यह भी नहीं मानना चाहिए, क्योंकि-सामान्यरूप से अनेक प्रत्यासत्तियों में से कहीं योग्यता के रहने पर भी अन्यथानुपपत्ति का अभाव पाया जाता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की प्रत्यासत्ति भी सर्वत्र कार्यकारण भाव संयोगादिरूप नहीं है क्योंकि सर्वत्र कार्यकारणभाव, संयोग आदि रूप सम्बन्ध होते हुए भी अविनाभाव से रहित नहीं दिखते हैं-ऐसा नहीं कहना चाहिए (अर्थात्-सम्बन्धों मे अनेक सम्बन्ध तो अविनाभाव से रहित हैं)। अत: सम्बन्ध के वश से भी सामान्य रूप करके अन्यथानुपपत्ति ही एक हेतु का लक्षण है, ऐसा मानना चाहिए। विशेषरूप से भी तादात्म्य और तदुत्पत्ति नाम के दो सम्बन्धों की व्यवस्था नहीं है। जैसे कि संयोग आदि छह सम्बन्धों की ज्ञापक हेतु के प्रकरण में संख्या व्यवस्थित नहीं है और उन दो, छह आदि हेतुभेदों
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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