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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 181 वा शीतसाधन' इत्यादिवचनेन स्वयं विशिष्टतामुपपन्ने यथा हेतोर्गमकत्वमविनाभावनियमेन व्याप्तमाचष्टे विनाभावनियमं तदभावेपि तत्संभवादन्यथा तस्य तेन विशेषणानर्थक्यात् / ततः संयोगादिरप्यविनाभावनियमविशिष्टो गमको हेतुरित्यभ्युपगंतुमर्हति विशिष्टतायाः सर्वत्रान्यथानुपपत्तिरूपत्वसिद्धेरिति न तदुत्पत्तितादात्म्याभ्यामन्यथानुपपन्नत्वं व्याप्तं / तद्विशिष्टाभ्यां व्याप्तमिति चेत् तमुन्यथानुपपन्नत्वेनान्यथानुपपन्नत्वं व्याप्तमित्यायातं / तच्च न सारं तस्यैव तेनैव व्याप्यव्यापकभावविरोधात् व्याप्यव्यापकयोः कथंचिद्भेदप्रसिद्धेः। “व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव . च" इति तयोर्विरुद्धधर्माध्यासवचनात् / अथ मतं ताभ्यां संबंधो व्याप्तस्तेनान्यथानुपपन्नत्वमिति / तदप्यविचारितमेव, तद्व्यतिरिक्तस्य संयोगादेः संबंधस्य सद्भावात् / बौद्ध अविनाभावरूप नियम से साध्य के साथ व्याप्त हेतु का ज्ञापकपना यथार्थ कह रहा है। तथा अविनाभाव नियम-को भी स्वयम् कह रहा है। उस अविनाभाव के न होने पर भी कार्य और स्वभाव सम्बन्ध हो जाते हैं। अन्यथा (यानी अविनाभाव के बिना भी हेतु यदि साध्य का ज्ञापक मान लिया जाय तब तो) उस हेतु का उस अविनाभाव से सहितपना विशेषण लगाना व्यर्थ होगा। अत: संयोगी, समवायी आदि हेतु भी अविनाभाव रूप नियम से विशिष्ट होते हुए अपने नियत साध्य की ज्ञप्ति कराने वाले हैं ऐसा स्वीकार करना योग्य है। क्योंकि, सम्पूर्ण हेतुओं में विशिष्टपना अन्थनुपपत्तिरूप से सिद्ध है अत: तदुत्पत्ति और तादात्म्य से अन्यथानुपपत्ति व्याप्त नही है। अपितु अन्यथानुपपत्ति सम्पूर्ण हेतु के साथ व्याप्त है। _ यदि कहो कि साध्य के बिना हेतु का नहीं रहना रूप अन्यथानुपपत्ति से विशिष्ट तादात्म्य और तदुत्पत्ति से ही अन्यथानुपपन्नपना व्याप्त है, तब तो अन्यथानुपपन्नपने से ही अन्यथानुपपन्नपना व्याप्त हैऐसा सिद्ध होता है, और वह कथन नि:सार है, क्योंकि उसका ही उस ही के साथ व्याप्य व्यापक भाव होने का विरोध है। व्याप्य और व्यापकों मे कथंचित् भेद की प्रसिद्धि है। उसमें और उससे भिन्न पदार्थों .में भी रहने वाला पदार्थ व्यापक होता है, तथा केवल उसमें ही रहने वाला व्याप्य होता है। इस प्राकर उन व्याप्य और व्यापकों में विरुद्ध धर्मों से आरूढ़ का कथन किया गया है। यदि बौद्धों का यह मन्तव्य हो कि उन तादात्म्य और तदुत्पत्तिरूप व्यापकों से सम्बन्ध व्याप्त है और सम्बन्धरूप व्यापक से अन्यथानुपपन्नता व्याप्त है तो आचार्य कहते हैं कि वह मन्तव्य भी वास्तविक विचारयुक्त नहीं है, क्योंकि उन तादात्म्य और तदुत्पत्ति से सर्वथा अतिरिक्त संयोग, समवाय, सहचर आदि अनेक सम्बन्धों का सद्भाव है। 'संयोग, समवाय आदि कार्यकारण भाव का सम्बन्ध भी असंयोगी और असमवायीरूप कार्यों के उपकारक के बिना कहीं भी नहीं पाये जाते हैं -ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि आकाश, आत्मा आदि नित्य द्रव्यों के नित्यसंयोग आदि का सम्बन्ध किसी के कार्य हुए बिना ही विद्यमान हैं। नित्यद्रव्य संभव नहीं है-ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। क्योंकि क्षणिक पर्याय के समान वह नित्यद्रव्य भी प्रमाणों से सिद्ध है अतः सम्पूर्ण ही नियत सम्बन्ध व्यक्तियों में व्यापक और तदात्म्य, तदुत्पत्ति से अन्य योग्यतास्वरूप सम्बन्ध कहना चाहिए। योग्यता का लक्षण कहते हैं-सर्व सम्बन्धों के भेद प्रभेदों में प्राप्त योग्यता नाम का एक सम्बन्ध मान लेना चाहिए।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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