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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 180 संयोगिना विना वह्निः स्वेन धूमेन दृश्यते। गवा विना विषाणादिः समवायीति चेन्मतिः॥१३९॥ कारणेन विना स्वेन तस्मादव्यापकेन च। वृक्षत्वेन क्षते किं न चूतत्वादिरनेकशः॥१४०॥ ततो यथाविनाभूते संयोगादिर्न लक्ष्यते। व्यापको व्यभिचारत्वात्तादात्म्यात्तत्तथा न किम् // 141 // देशकालाद्यपेक्षश्चेद्भस्मादेर्वह्निसाधनः / चूतत्वादिर्विशिष्टात्मा वृक्षत्वज्ञापको मतः॥१४२॥ संयोगादिविशिष्टस्तनिश्चित: साध्यसाधनः। विशिष्टता तु सर्वस्य सान्यथानुपपन्नता // 143 // सोयं कार्यादिलिंगस्याविशिष्टस्यागमकतामुपलक्ष्य कार्यस्वभावैर्यावद्भिरविनाभाविकारणे तेषां हेतुः स्वभावाभावेपि भावमात्रानुविरोधिनि “इष्टं विरुद्धकार्येपि देशकालाद्यपेक्षणं / अन्यथा व्यभिचारी स्याद्भस्मे हेतु दूषित है। बौद्धों के इस प्रकार कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि अपने कारण के बिना कार्य नहीं होता है और व्यापक के बिना व्याप्य नहीं। किन्तु अनेक बार आम्रपन, शीशोपन आदि की वृक्षपने द्वारा क्षति देखी गई है। अर्थात् शीशों और आम के पेड़ों के समान शीशों, आम, पीपल की बेलें भी हैं, ये सब दोष अच्छे नहीं हैं। क्योंकि कारण के बिना कार्य और व्यापक के बिना व्याप्य नहीं होता है। वृक्षपने से व्याप्य शीशोंपना, आम्रपना पृथक् है। शीशों की बेल तो भिन्न प्रकार की होगी। अतः आप बौद्धों के यहाँ अविनाभाव वाले हेतुओं में जिस प्रकार संयोग, समवाय, आदि सम्बन्ध नहीं देखे जाते और व्यभिचारी होने से व्याप्यव्यापकभाव सम्बन्ध भी नहीं देखा जाता है, उसी प्रकार तादात्म्य सम्बन्ध होने से भी व्यभिचार क्यों नहीं कहा जाता है ? // 139-140-141 // देश, काल, आकार आदि की अपेक्षा भस्म आदि हेतु यदि अग्निसाधक माने जायेंगे और स्कन्ध आदि स्वरूपों से विशिष्ट हुआ आम्रपना आदि हेतु वृक्षपन के ज्ञापक माने जाएंगे तब तो अविनाभाव से विशिष्ट होते हुए संयोग आदि भी निश्चित होकर साध्य के साधने वाले हो जाएंगे और वह सम्पूर्ण हेतुओं की विशिष्टता तो अन्यथानुपपत्ति ही है। अर्थात्-ज्ञापक हेतु का प्राण अविनाभाव ही है। उससे विशिष्ट होता हुआ कोई भी संयोगी, सहचर, आम्रत्व आदि हेतु निश्चित रूप से साध्य को सिद्ध करता ही है॥१४२१४३॥ बौद्ध का कथन : वह यह बौद्ध कार्य हेतु, स्वभाव हेतु और अनुपलब्धि हेतु को अन्यथानुपपत्ति नाम के विशेषण से रहित साध्य का ज्ञापकपना नहीं है, इस बात का उपलक्षण कर कहता है कि जितने भी कार्य और स्वभावों के साथ अविनाभाव रखने वाले कारण और भावों के होने पर उन कारण और भावरूप साध्यों के कार्य और स्वभाव ज्ञापक हेतु इष्ट हैं। स्वभाव न होने पर भी भाव मात्र का विरोध करने वाले हेतु में विज्ञापकपना नहीं है। “विरुद्ध कार्य होने पर भी देश काल आदि की अपेक्षा रखने वाला हेतु ज्ञापक मान लिया जाता है। अन्यथा (यानी देश, काल आदि विशेषण के नहीं लगाने पर तो) वह हेतु व्यभिचारी हो जाता है। जैसे कि 'उष्णता साधने में भस्म हेतु व्यभिचारी हो जाता है' इत्यादि वचन के द्वारा हेतु की विशिष्टता को स्वयं स्वीकृत करता हुआ
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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