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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 179 अर्वाग्भागोऽविनाभावी परभागेन कस्यचित्। सोपि तेन तथा सिद्धः संयोगी हेतुरीदृशः॥१३६॥ सास्नादिमानयं गोत्वाद्गौर्वा सास्नादिमत्त्वतः / इत्यन्योन्याश्रयीभावः समवायिषु दृश्यते // 137 // चंद्रोदयोऽविनाभावी पयोनिधिविवर्धनैः। तानि तेन विनाप्येतत्संबंधद्वितयादिह // 138 // एवंविधं रूपमिदमामत्वमेव रसत्वादित्येकार्थसमवायिनो वृक्षोयं शिंशपात्वादित्येतस्य वा तदुत्पत्तितादात्म्यबलादविनाभावित्वं / नास्त्यत्र शीतस्पर्शोग्नेरिति विरोधिनस्तादात्म्यबलात्तदिति स्वमनोरथं प्रथयतोपि संयोगिसमवायिनोर्यथोक्तयोस्ततोन्यस्य च प्रसिद्धस्य हेतोर्विनैव ताभ्यामविनाभावित्वमायातं / नास्त्येवात्राविनाभावित्वं विनियतमित्येतदाशंक्य परिहरनाह; किसी भी भीत, कपाट आदि का उरली ओर का भाग तो परली ओर के भाग के साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखने वाला है, वह परला भाग भी उस प्रकार उरली ओर के भाग के साथ अविनाभाव रखता है। इस प्रकार के समव्याप्ति वाले संयोगी हेतु सिद्ध है। तथा यह पशु लटकता हुआ गले का चर्मरूप सास्ना, सींग, आदि धर्मों से युक्त होने से बैल है। अथवा यह पशु गौ है क्योंकि सास्ना, सींग आदि से सहित है, इस प्रकार परस्पर में एक दूसरे के आश्रय होता हुआ समवायी हेतुओं में अविनाभाव सम्बन्ध देखा जाता है (अर्थात् ज्ञात होता है)। एक धर्म से दूसरे अज्ञात धर्म का ज्ञान करा दिया जाता है। तथा चंद्रमा का उदय होना भी समुद्र का जलवृद्धि के साथ सम्बन्ध अविनाभाव रखता है, और समुद्र वृद्धि होना उस चंद्रोदय के साथ अविनाभाव की धारणा करना है। इस कारण उक्त तादात्म्य और तदुत्पत्ति नाम के दो सम्बन्धों के बिना भी यहाँ संयोगी, समवायी, सहचर ये हेतु भी अविनाभावी होकर अपने साध्य के ज्ञापक देखे जाते हैं॥१३६-१३७-१३८॥ इस प्रकार रस वाला होने से यह आम्रफल इस प्रकार के रूप वाला है क्योंकि रूप का एक ही अर्थ में समवाय सम्बन्ध हो जाने से उन दोनों का परस्पर में एकार्थसमवाय सम्बन्ध माना गया है। इनका तदुत्पत्ति नामक सम्बन्ध से अविनाभाव बन जाता है। अथवा यह शिंशपा होने से वृक्ष है, ऐसे इस अनुमान को तादात्म्य के बल से अविनाभावीपना रहता ही है। यहाँ शीतस्पर्श नहीं है क्योंकि आग जल रही है। इस प्रकार विरोधी हेतु का भी तादात्म्य के बल से अविनाभाव है। इस प्रकार सहचर, एकार्थ समवायी आदि हेतुओं को तादात्म्य तदुत्पत्ति में गर्भित कर अपने मनोरथ को चारों ओर प्रसिद्ध करने वाले बौद्धों के यहाँ * यथायोग्य अभी कहे गये परभाग, सास्ना आदिक संयोगी और समवायी हेतुओं को तथा उनसे अन्य प्रसिद्ध चन्द्रोदय, छत्र, भरण्युदय आदि हेतुओं को भी उन तादात्म्य, तदुत्पत्ति के बिना ही अविनाभावीपना प्राप्त हो जाता है। ___ यहाँ परभाग, सास्ना आदि में अविनाभावीपना विशेषरूप से नियत नहीं है। इस प्रकार बौद्ध की आशंका का परिहार करते हुए आचार्य कहते हैं. अपने साथ संयोग सम्बन्ध रखने वाले धूम के बिना भी उष्ण लोहपिण्ड में अग्नि दृष्टिगोचर होती है, तथा समवाय सम्बन्ध वाले सींग, सास्ना आदि भी गौ के बिना भैंस में दिख रहे हैं। अतः समवायी
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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