________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 177 यथैव हि लोकः कार्यस्वभावयोः संबंधभेदात्ततोनुपलभस्य च विषयभेदानेदमनुरुध्यते तथाविनाभावनियममात्रात्कार्यादिहेतुत्रयात्कृत्तिकोदयादि हेतोरपीति कथमसौ चतुर्थो हेतुर्न स्यात् / न ह्यत्र लोकस्यानुरोधनवचो बाधकादिति शक्यं वक्तुं बाधकासंभवात्। नन्विदमन्यथानुपपन्नत्वं नियतं संबंधेन व्याप्तं तदभावे तत्संभवेतिप्रसंगात् सोपि तादात्म्यतज्जन्मभ्यामतादात्म्यवतस्तजन्मनो वा संबंधानुपपत्तेः। ततः कृत्तिकोदयादौ साध्ये न तादात्म्यस्य तदुत्पत्तेर्वा वैधुर्ये कुतः संबंधस्तदभावे कुतोन्यथानुपपन्नत्वनियमो येन स सम्बन्ध हो जाने से कृत्तिकोदय भी हेतु क्यों नहीं हो जायेगा? अर्थात् वस्तुत: देखा जाए तो तदुत्पत्ति आदिक अनियत सम्बन्धों का व्यभिचार दृष्टिगोचर होता है। अतः हेतु द्वारा साध्य को साधने में अन्यथानुपपन्नत्वरूप सम्बन्ध ही निर्दोष है। अन्य कोई सम्बन्ध निर्दोष नहीं // 133-134 // जिस प्रकार लौकिक जन कार्य और स्वभाव के सम्बन्ध का तथा अनुपलम्भ के विषय का भेद होने से हेतुओं के भेद का अनुरोध करते हैं (अर्थात् तादात्म्य और तदुत्पत्ति नाम के दो सम्बन्ध हो जाने से भावहेतुओं के स्वभाव और कार्य ये दो भेद हो जाते हैं) तथा अभावरूप विषय को साधने की अपेक्षा अनुपलब्धि नाम का तीसरा हेतु भी सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार केवल अविनाभावरूप नियम का सम्बन्धी होने से कार्य आदि तीन हेतुओं के अतिरिक्त कृत्तिकोदय, भरण्युदय, चन्द्रोदय आदि हेतुओं के भी भेद मानकर चौथा हेतु क्यों नहीं हो जाएगा? (यानी तीन के अतिरिक्त चतुर्थ पंचम आदि भी हेतु के भेद हो जाएंगे) इसमें बाधक कारण उत्पन्न हो जाने से लोक का अनुकूल आचरण करने वाला वचन नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते हो। क्योंकि कृतिकोदय आदि को ज्ञापक हेतु बनाने में सभी लोकसम्मत हैं। इसमें बाधक प्रमाण संभव नहीं है। शंका : यह अन्यथानुपपत्तिपना तो व्यापक सम्बन्ध से निश्चित व्याप्त है। उस सम्बन्ध के न होने पर भी यदि अन्यथानुपपत्ति का सद्भाव माना जायेगा तो अतिप्रसंग दोष आएगा (अर्थात् सम्बन्ध से रहित आकाश और पुष्प या आत्मा और रूप तथा पुद्गल और ज्ञान आदि में भी अन्यथानुपपत्ति बन जायेगी)। वह सम्बन्ध भी तादात्म्य और तदुत्पत्ति नामक दो सम्बन्धों से ही व्याप्त है। (जगत् में वास्तविक सम्बन्ध दो ही हो सकते है)। जो पदार्थ तादात्म्य सम्बन्ध वाला नहीं है अथवा तदुत्पत्ति सम्बन्ध वाला नहीं है, उसके अन्य कोई भी सम्बन्ध नही हो सकता है। अतः कृतिकादि साध्य हेतुओं में अपने साध्य के साथ तादात्म्य और तज्जन्यत्वनामक सम्बन्ध के बिछुड़ जाने पर उनसे सम्बन्ध कैसे बन सकता है? व्यापक के नहीं रहने से व्याप्य भी नहीं रहता है (तादात्म्य और तदुत्पत्ति का अन्यतरपना व्यापक है और सम्बन्ध व्याप्य है)। उस सम्बन्ध के न होने पर अन्यथानुपपत्तिरूप नियम भी कैसे रह सकता है? अर्थात् नहीं रहता है। व्यापक के बिना व्याप्य की स्थिति नहीं है अन्यथानुपपत्तिरूप नियम भी कैसे रह सकता है? अर्थात् नहीं रहता है। व्यापक के बिना व्याप्य की स्थिति नहीं है जिससे कि वह कृत्तिकोदय हेतु शकटोदय साध्य का गमक हो जाता। अर्थात् तादात्म्य और तदुत्पत्ति न होने से कृत्तिकोदय में कोई सम्बन्ध नहीं, और सम्बन्ध न होने से अन्यथानुपपत्ति नहीं। इसलिए कृत्तिकोदयादि चतुर्थ हेतु नहीं हैं अत: व्यापक का अनुपलम्भ वहाँ लोक की अनुकूलता का बाधक प्रतीत हो रहा है।