________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 176 यतस्तद्धेतुलक्षणमाचक्षीत। न हि पक्षधर्मत्वशून्यो हेतुर्न सम्भवति तथाहि। उदेष्यति मुहूर्तान्ते शकटं कृत्तिकोदयात्। पक्षधर्मत्वशून्योयं हेतुः स्यादेकलक्षणः // 130 // उदेष्यच्छकटं व्योम कृत्तिकोदयवत्त्वतः। इति प्रयोगतः पक्षधर्मतामेष्यते यदि॥१३१॥ तदा धूमोग्निमानेष धूमत्वादितिगद्यताम् / ततः स्वभावहेतुः स्यात्सर्वो लिंगस्त्रिवान्न ते॥१३२॥ यदि लोकानुरोधेन भिन्नाः संबंधभेदतः। विषयस्य च भेदेन कार्याद्यनुपलब्धयः॥१३३॥ किं न तादात्म्यतजन्मसंबंधाभ्यां विलक्षणात्। अन्यथानुपपन्नत्वाद्धेतुः स्यात्कृत्तिकोदयः॥१३४॥ पर अकेले पक्षधर्मत्वरूप को ही अन्यथानुपपत्ति विशेषण से विशिष्ट बनाकर हेतु को साध्य साधने के लिए सपक्ष में सत्त्व अथवा विपक्ष में असत्त्वपने से निश्चित कर साध्य को साधने के लिए पर्याप्त कहा जा सकता है। अत: उस तीन अवयव वाले समुदित त्रैरूप्य से क्या करने योग्य शेष रह गया? जिससे कि उस त्रैरूप्य को हेतु का लक्षण कहते हैं। अर्थात् हेतु का लक्षण त्रैरूप्य नहीं है। पक्ष धर्म से रहित हेतु संभव नहीं है, यह नहीं समझना चाहिए। इसी बात को दृष्टान्त देकर स्पष्ट करते हैं-एक मुहूर्तान्तर रोहिणी का उदय होगा, क्योंकि इस समय कृतिका का उदय है। यह हेतु पक्ष धर्म से शून्य होता हुआ भी एक अन्यथानुपपत्ति नाम का लक्षण घट जाने से सद्धेतु माना गया है॥१३०॥ वर्तमानकाल में कृतिका के उदय से सहितपना होने से आकाश भविष्य में उदय होने वाले रोहिणी के उदय से सहित होने वाला है। ऐसे अनुमान का प्रयोग होने से आकाशरूप पक्ष में कृत्तिकोदयसहितपना हेतुका रहना यदि बौद्ध इष्ट करेंगे तब तो वह धूम धूमपना होने से अग्नि वाला है। इस प्रकार अनुमान बनाकर कभी कह देना चाहिए। अतः सभी हेतु स्वभाव हेतु ही बन जाएंगे। कार्य हेतु और अनुपलम्भ हेतु भी उक्त प्रकार से पक्ष की कल्पना करते हुए पक्ष के या साध्य के स्वभाव हो जाएंगे, ऐसी दशा में तीन भेद वाले हेतु सिद्ध नहीं होते॥१३१-१३२॥ यदि लोक के अनुरोध से सम्बन्ध का और विषयभूत साध्य का भेद हो जाने से कार्य हेतु, स्वभाव हेतु और अनुपलम्भ ये तीन हेतु मान लोगे, अथवा कारण के अभाव को जानने के लिए कार्यानुपलब्धि और व्यापक का अभाव साधने के लिए व्याप्य की अनुपलब्धि आदि को हेतु मानते हो तो स्वभाव हेतु के प्रयोजक तादात्म्य सम्बन्ध और कार्यहेतु के प्रयोजक तदुत्पत्ति सम्बन्ध से विलक्षण अन्यथानुपपत्ति नामक