________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 173 मतिज्ञानसामान्यमभिनिबोधः प्रोक्तो न पुनः स्वार्थानुमानं तद्विशेष इति चेन्न, प्रकरणविशेषाच्छद्रांतरसंनिधानादेर्वा सामान्यशब्दस्य विशेषे प्रवृत्तिदर्शनात् गोशब्दवत्। तेन यदा कृतषट् त्रिंशत्त्रिशतभेदमाभिनिबोधिक मुच्यते तदाभिनिबोधसामान्य विज्ञायते, यदा त्ववग्रहादिमतिविशेषानभिधाय ततः पृथगभिनिबोध इत्युच्यते तदा स्वार्थानुमानमिति इंद्रियानिंद्रियाभ्यां नियमितस्यासर्वपर्यायद्रव्यं प्रत्यभिमुखस्य बोधस्यास्याभिनिबोधिकव्यपदेशादभिनिबोध एवाभिनिबोधिकमिति स्वार्थेकस्य ठणो विधानात्। न च तदनिंद्रियेण लिंगापेक्षेणं नियमितं साध्यार्थाभिमुखं बोधनमाभिनिबोधिकमिति से उत्पन्न होने वाले सभी मतिज्ञानों को अभिनिबोध कहा है, किन्तु उस मतिज्ञान के विशेष भेद स्वार्थानुमान को अभिनिबोध नहीं कहा है। समाधान : ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि विशेष प्रकरण होने से अथवा अन्य शब्दों के सन्निकट होने से या तात्पर्य आदि से सामान्य शब्द की विशेष अर्थों में प्रवृत्ति होना दृष्टिगोचर हो रहा है, जैसे कि वाणी, दिशा, पृथ्वी, वज्र, किरण, पशु, नेत्र, स्वर्ग, जल, बाण, रोम इन ग्यारह अर्थों में सामान्य रूप से रहने वाला गो शब्द प्रकरण विशेष होने पर गो या वाणी को विशेष रूप से कहने लग जाता है। क्वचित् विशेष शब्द भी सामान्य का वाचक हो जाता है, अतः जब तीन सौ छत्तीस भेदवाला अभिनिबोध कहा जाता है, तब सामान्य मतिज्ञान ही अभिनिबोध समझा जाता है किन्तु जब मतिज्ञान के विशेष भेद अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदि को कह चुकने पर उन अवग्रह आदिकों से पृथक् अभिनिबोध ऐसा कहा जाता है तब अभिनिबोध का अर्थ स्वार्थानुमान किया जाता है। इस प्रकार इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से / नियमित, थोड़ी सी पर्याय और सम्पूर्ण द्रव्यों के प्रति अभिमुख बोध को आभिनिबोधिक ऐसा नाम निर्देश किया गया है। अभिमुख नियमित, बोध ही तो आभिनिबोधिक है। इस प्रकार स्वार्थ में ही किये गये 'ठण' प्रत्यय का विधान है (ठण को ‘इक' आदेश हो जाता है जो प्रकृति का अर्थ है, वही स्वार्थ में किये गये प्रत्ययों से युक्त पद का अर्थ है)। वह अनुमानरूप अभिनिबोध ज्ञापक लिंग की अपेक्षा रखने वाले मन के विचार द्वारा नियमित साध्य रूप अर्थ के अभिमुख होकर बोध करना आभिनिबोधिक है। यह विरुद्ध नहीं पड़ता है, क्योंकि उस आभिनिबोध का लक्षण करने वाले वाक्य में दूसरे वाक्य का (आस्रव-आगमन) हो जाता है अर्थात् लक्ष्य में शब्द का लक्षण भिन्न-भिन्न अभीष्ट है। . भावार्थ : 'इन्द्रियानिंद्रियजन्यं' इस लक्षण का अर्थ इन्द्रिय अनिन्द्रिय दोनों से उत्पन्न होना यह तो सामान्य मतिज्ञान में घट जाता है और योग विभाग कर केवल अनिन्द्रिय का आकर्षण करने से अनिन्द्रियजन्य अभिमुख नियत अर्थ का बोध करना यह लक्षण स्वार्थानुमानरूप अभिनिबोध में घट जाता बौद्धों का कथन है कि अन्यथानुपपत्तिरूप एक लक्षण वाले हेतु से लिङ्गी में ज्ञान होना अनुमान नहीं है, जो कि अभिनिबोध शब्द से कहा जाता है। शंका : अभिनिबोध का अर्थ क्या है?