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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 172 साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः। प्रधानगुणभावेन विधानप्रतिषेधयोः // 121 // अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनं / साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धमुदाहृतम् // 122 // तत्साध्याभिमुखो बोधो नियतः साधने तु यः। कृतोनिंद्रिययुक्तेनाभिनिबोधः स लक्षितः॥१२३॥ साध्याभावासंभवनियमलक्षणात्साधनादेव शक्याभिप्रेताप्रसिद्धत्वलक्षणस्य साध्यस्यैव यद्विज्ञानं तदनुमानमाचार्या विदुः यथोक्तहेतुविषयद्वारकविशेषणयोरन्यतरस्यानुमानत्वाप्रतीतेः। स एव वाभिनिबोध इति लक्षितः। साध्यं प्रत्यभिमुखस्य नियमितस्य च साधनेनानिद्रिययुक्तेनाभिबोधस्याभिनिबोधत्वात्। ननु विद्वान् पुरुष साधन से साध्य के विज्ञान को अनुमान प्रमाण कहते हैं। वह अनुमान ज्ञान प्रधान रूप से प्रकृत साध्य के विधान करने में और गौण रूप से साध्यभिन्न पदार्थों के निषेध करने में चरितार्थ होता है। अथवा उपलब्धि और अनुपलब्धि हेतु द्वारा प्रधान और गौणरूप से साध्य की विधि और निषेध करने में युक्त रहता है॥१२१॥ शक्य, अभिप्रेत (इष्ट) और असिद्ध के साध्य को सिद्ध करने वाले साधन का अन्यथानुपपत्ति एक लक्षण कहा गया है।।१२२॥ अर्थात् अन्यथानुपपत्ति (साध्य के बिना नहीं रहना जिसका लक्षण है) वह साधन है और शक्य, इष्ट और असिद्ध साध्य कहलाता है। 'साधनात्साध्यविज्ञानम्' इसका अर्थ यह है कि अनिन्द्रिय यानी मन से सहकृत साधनज्ञान से साध्य की ओर अभिमुख होकर नियत जो बोध किया गया है, वह अभिनिबोध का लक्षण है। अर्थात् अभि और नि उपसर्गपूर्वक बुध अवगमने' धातु से घञ् प्रत्यय कर अभिनिबोध शब्द बना है। ‘अभि' यानी साध्य के अभिमुख 'नि' यानी अविनाभावरूप नियम से जकड़ा हुआ बोध यानी साधन से साध्य का ज्ञान होना। इस प्रकार निरुक्ति करने से अभिनिबोध का अर्थ अनुमान होता है। साधन का ज्ञान अनुमान का उत्थापक है॥१२३॥ साध्य का अभाव होने पर नियम से असम्भव होना जिसका लक्षण है, ऐसे साधन से ही शक्य, अभिप्रेत और अप्रसिद्धपना लक्षण वाले साध्य का जो विज्ञान होता है, वह अनुमान है, ऐसा आचार्य मान रहे हैं। पूर्वोक्तानुसार अभिमुख और नियमित अर्थ को कहने वाले तथा हेतु करके जाने गए विषय को द्वार बनाकर उपात्त किये गए अभि और नि इन दो विशेषणों में से किसी भी एक के नहीं लगाने पर अनुमानपना प्रतीत नहीं होता है, अत: वही ज्ञान अभिनिबोध है। जिसमें नि और अभि प्रत्यय लगा है। ऐसा यहाँ अनुमान के प्रकरण में लक्षण प्राप्त है, क्योंकि साध्य के प्रति उन्मुख और अन्यथानुपपत्तिरूप नियम से वेष्टित अर्थ का मन इन्द्रिय से नियोजित साधन करके बोध होने को अभिनिबोधपना व्यवस्थित है। अर्थात् साधन से जो साध्य का ज्ञान होता है वह अभिनिबोध है। शंका : पूर्व आचार्यों ने सामान्यरूप से सभी मतिज्ञानों को अभिनिबोध कहा है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने भी अभिमुहणियमियवोहणमाभिवोहणमणिदियेदिजयम्' -इस गाथा से इन्द्रिय, अनिन्द्रियों
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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