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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 171 यस्मिन्नर्थं प्रवृत्तं हि प्रमाणं किंचिदादितः। तत्र प्रवृत्तिरन्यस्य यानुग्राहकतात्र सा॥११८॥ पूर्वनिर्णीतदाढळस्य विधानादभिधीयते। उत्तरेण तु तद्युक्तमप्रमाणेन जातुचित् // 119 // स्वयं प्रमाणानामनुग्राहकं तर्कमिच्छन्नाप्रमाणं प्रतिपत्तुं समर्थो विरोधात्। प्रमाणसामण्यंतर्भूतः कश्चित्तर्कः प्रमाणमिष्ट एवेति चेन्न, तस्य स्वयं प्रमाणत्वोपपत्तेः। तथाहि-प्रमाणं तर्क: साक्षात्परंपरया च स्वार्थनिश्चयने फले साधकतमत्वात्प्रत्यक्षवत् स्वविषयभूतस्य साध्यसाधनसंबंधाज्ञाननिवृत्तिरूपे साक्षात्स्वार्थनिश्चयने फले साधकतमस्तर्कः परंपरया तु स्वार्थानुमाने हानोपादानोपेक्षाज्ञाने वा प्रसिद्ध एवेत्युपसंहियते॥ ततस्तर्कः प्रमाणं नः स्यात्साधकतमत्वतः। स्वार्थनिश्चयने साक्षादसाक्षाच्चान्यमानवत् // 120 // के आगमज्ञान का धूमहेतु से उत्पन्न अनुमान द्वारा और अग्नि के प्रत्यक्ष द्वारा अनुग्रह कर दिया जाता है अत: अनुमान और प्रत्यक्ष जैसे प्रमाण हैं, उसी प्रकार अनुमान का उपकारक होने से तर्कज्ञान भी प्रमाण है)। 116-117 // जिस अर्थ में कोई भी प्रमाण प्रथम से प्रवृत्त होता है, उसी विषय में अन्य प्रमाणों की प्रवृत्ति हो जाना यहाँ अनुग्राहकपना माना गया है। वह अनुग्राहकता भी पहले से निर्णीत किये गये अर्थ की अधिक दृढ़ता का विधान करने से कही जाती है। उत्तरकालवर्ती प्रमाणरूप ज्ञान से पूर्वनिर्णीत अर्थ की दृढ़ता की जा सकती है। अप्रमाणज्ञान में या अप्रमाणज्ञान के द्वारा दृढ़ता कभी नहीं हो सकती है, अतः दृढ़ता का सम्पादक तर्कज्ञान प्रमाण है।।११८-११९॥ प्रमाणों का अनुग्रह कराने वाले तर्क ज्ञान को स्वयं चाहता हुआ विद्वान् इस तर्क को अप्रमाण कहने के लिए समर्थ नहीं है, क्योंकि तर्क को अप्रमाण कहना स्वचनबाधित है, कोई कहता है कि प्रमाण की सामग्री के भीतर प्रविष्ट होने से तर्कज्ञान प्रमाण है, स्वतंत्र नहीं है? अर्थात्-तर्कज्ञान को प्रमाण की सामग्री के भीतर प्रविष्ट हुआ मानते हैं; स्वतंत्र पृथक् प्रमाण नहीं। आचार्य कहते हैं-ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि उस तर्क को स्वयम् प्रमाणपना युक्तिसिद्ध है। अव्यवहित रूप से स्वार्थ का निश्चय करना रूप फल में और परम्परा से होने वाले फलों में प्रकृष्ट उपकारक होने से तर्कज्ञान प्रमाण है जैसे कि प्रत्यक्षज्ञान प्रमाण है। तर्कज्ञान अपने विषयरूप साध्य और साधन के अविनाभावरूप सम्बन्ध के अज्ञान की निवृत्ति करना रूप स्वार्थनिश्चयस्वरूप, अव्यवहित फल को उत्पन्न करने में प्रकृष्ट उपकारक है और परम्परा से तो स्वार्थ अनुमान में, हेय में हानबुद्धि और उपादेय में उपादान बुद्धि तथा उपेक्षणीय तत्त्वों में उपेक्षा बुद्धि करने रूप फल में करण (साधन) होता हुआ तर्कज्ञान प्रसिद्ध ही है। इस प्रकार तर्कज्ञान पर बहुत विचार हो चुका है। अब तर्क के प्रकरण का उपसंहार किया जाता है कि हम स्याद्वादियों के यहाँ तर्कज्ञान प्रमाण है, अपना और अर्थ का निश्चय करने में साधकतमपना होने से, जैसे कि अनुमान ज्ञान अथवा अन्य सच्चे ज्ञान प्रमाण हैं। अपने विषयभूत स्वार्थ की अज्ञाननिवृत्ति करना प्रत्येक ज्ञान का साक्षात् फल है और पीछे परम्परा से आत्मा के पुरुषार्थ की प्रवृत्ति अनुसार छोड़ना, ग्रहण करना, उपेक्षा करना रूप फल है॥१२०॥ यहाँ तक तर्कज्ञान का विचार पूर्ण हो गया है। अब मतिज्ञान के अभिनिबोध भेद का विचार करते हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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