________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *170 यथा संशयितार्थेषु प्रमाणानां प्रवर्तनं / निर्णयाय तथा लोके तर्कितेष्विति चेन्मतम् // 112 // संशयः साधकः प्राप्तः प्रमाणार्थस्य ते तथा। नाप्रमाणत्वतस्तर्कः प्रमाणमनुमन्यताम् // 113 // स चेत्संशयजातीयः संशयात्पृथगास्थितः। कथं पदार्थसंख्यानं नान्यथास्त्विति त्वश्नुते // 114 // तस्मात्प्रमाणकर्तव्यकारिणो वेदितात्मनः। सत्तर्कस्याप्रमाणत्वमवितळ प्रचक्ष्यते // 115 // प्रमाणं तर्कः प्रमाणकर्तव्यकारित्वात् प्रत्यक्षादिवत् प्रत्ययसाधनं प्रमाणकर्तव्यं तत्कारी च तर्कः प्रसिद्ध इति नासिद्धो हेतुः / नाप्यनैकांतिकोऽप्रमाणे विपक्षे वृत्त्यभावात्। न हि प्रमेयांतरं संशयादि वा प्रमाणविषयस्य साधनं विरोधात्। ततस्तर्कस्थप्रमाणविषयसाधकत्वमिच्छता प्रमाणत्वमुपगंतव्यम्। किं चसम्यक् तर्कः प्रमाणं स्यात्तथानुग्राहकत्वतः। प्रमाणस्य यथाध्यक्षमनुमानादि चाश्नुते // 116 // अनुग्राहकता व्याप्ता प्रमाणत्वेन लक्ष्यते। प्रत्यक्षादौ तथाभासे नागमानुग्रहक्षतेः॥११७॥ उत्तर : इस प्रकार कहने वाले के अभिमत में संशय ज्ञान भी प्रमाण अर्थ का साधक हो जायेगा, अत: अप्रमाणपने से संशयज्ञान की जो व्यवस्था थी वह नहीं रह सकती। इसी प्रकार प्रमाण के साधक तर्कज्ञान को भी प्रमाण मान लेना चाहिए। यदि तर्क को संशय की जाति वाला माना जायेगा, तो वह संशय से भिन्न नहीं होगा। ऐसी दशा में पदार्थ की संख्या करना दूसरे प्रकार से क्यों नहीं हो जाएगी ? द्रव्य, गुण आदि में तो तर्क नहीं गिनाया है, अतः स्वयं अपने स्वरूप को जानने वाले और प्रमाण से करने योग्य कार्य को बनाने वाले समीचीन तर्कज्ञान को अप्रमाण कहना बिना विचार का है अर्थात् विचार करने पर तर्कज्ञान की प्रमाणता सिद्ध है॥११२-११३-११४-११५॥ प्रमाण से करने योग्य कार्यों का करने वाला होने से तर्कज्ञान प्रमाण है जैसे प्रत्यक्ष, अनुमान आदिक ज्ञान प्रमाण हैं। प्रमाण का कर्तव्य प्रतीति का साधन करना है। उसका करने वाला तर्कज्ञान प्रसिद्ध ही है। इसलिए हेतु के पक्ष में रहने से प्रतीति रूप हेतु असिद्ध हेत्वाभास भी नहीं है, तथा यह हेतु व्यभिचारी भी नहीं है, क्योंकि संशय आदिक अप्रमाणरूप विपक्षों में प्रमाण कर्त्तव्यकारित्व हेतु नहीं रहता है। प्रतियोगी के सदृश को पकड़ने वाले पर्युदास पक्ष के अनुसार अप्रमाण संशय आदिक हैं और 'नत्र' द्वारा सर्वथा निषेध को ही करने वाले प्रसज्यनिषेध के अनुसार घट, पट आदि अप्रमाण हैं। वे सभी इतर प्रमेय अथवा संशय आदिक अप्रमाण पदार्थ प्रमाणविषय के साधक नहीं हैं। प्रमाण द्वारा साधने योग्य कार्य को करने का इनमें विरोध है, अतः तर्क को प्रमाण विषय का साधकपना चाहने वाले वादी को उसका प्रमाणपना स्वीकार कर लेना चाहिए और भी एक यह बात है कि प्रमाणों का अनुग्रह करने वाला होने से समीचीन तर्कज्ञान प्रमाण है, जिस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान आदिक प्रमाण प्रमाणपन को व्याप्त कर लेने से प्रमाण हैं जैसा प्रमाणों का अनुग्रह करना रूप हेतु प्रमाणपनरूप साध्य से व्याप्त प्रत्यक्ष आदि दृष्टान्तों में देखा जाता है। इस प्रकार का अनुग्रहपन प्रमाणाभासों में नहीं दिखता है, क्योंकि यदि प्रमाणाभास में अनुग्रहता स्वीकार की जावेगी तो आगम के अनुग्रह करा देने का प्रत्यक्ष आदि में जो निर्णय होता है, उसकी क्षति हो जायेगी। (अर्थात् सत्यवक्ता के द्वारा ज्ञात अग्नि