________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 160 प्रसाधितश्च संबंध: परमार्थिकोऽर्थानां प्रपंचतः प्राक् संबंधितास्य मानव्यवस्थितिहेतुरित्यलं विवादेन निर्बाधं संबंधितायाः स्वबुद्धेः स्वार्थक्रियायाः संबंधस्य व्यवस्थानात्। पावकस्य दाहाद्यर्थक्रियावत् संवेदनस्य स्वरूपप्रतिभासनवद्वा तस्या वासनामात्रनिमित्तत्वे तु सर्वार्थक्रिया सर्वस्य वासनामात्रहेतुका स्यादिति न किंचित्परमार्थतार्थक्रियाकारीति कुतो वस्तुत्वव्यवस्था परितोषहेतोः पारमार्थिकत्वेप्युक्तं स्वप्नोपलब्धस्य तत्त्वप्रसंगात् इति न हि तत्र परितोषः कस्यचिन्नास्तीति सर्वस्य सर्वदा सर्वत्र नास्त्येवेति चेत् जाग्रद्दशार्थक्रियायास्तर्हि सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्वात् परमार्थसत्त्वमित्यायातं / तथा चार्थानां संबंधितार्थक्रियासंबंधस्य कथं परमार्थसतीति न सिद्ध्येत्। न हि तत्र कस्यचित् कदाचित् बाधकप्रत्यय उच्यते येन सुनिश्चितासम्भवद् बाधकत्वं न भवेत् / सर्वथा संबंधाभाववादिनस्तत्रास्ति बाधकप्रत्यय इति चेत् , सर्वथा शून्यवादिनस्तत्त्वोपप्लववादिनो ब्रह्मवादिनो वा जाग्रदुपलब्धार्थक्रियायां किं न बाधकप्रत्ययः। स भावार्थ : ज्ञान ही तो वस्तुओं के व्यवस्थापक हैं और ज्ञानों को मिथ्या संस्कारों से उत्पन्न हुए मान लेने पर कोई वस्तु यथार्थ नहीं रहती है। बौद्ध यदि आत्मा को परितोष के कारण अर्थों को वस्तुभूत पदार्थ मानेंगे तो भी वस्तु व्यवस्था नहीं हो सकेगी, इसका पूर्व में कथन कर दिया गया है। स्वप्न में देखे हुए पदार्थों से भी कुछ काल तक परितुष्टि हो जाती है अतः स्वप्न में जाने हुए स्त्री, धन आदि पदार्थों को भी पारमार्थिकपने का प्रसंग आयेगा। उस स्वप्न में देखे हए पदार्थ में किसी को भी प्रसन्नता नहीं है-ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि स्वप्न में देखे गए पदार्थों से भी सुख, दुःख का अनुभव होता है। यदि (बौद्ध) कहें कि सभी स्वप्नदर्शी प्राणियों को सर्वदा सभी स्थलों पर परितोष नहीं होता है, तो जैन भी कहते हैं कि जागती दशा की अर्थक्रिया के बाधकों का असम्भव निश्चित हो रहा है अत: जागृत अवस्था में पदार्थ परमार्थरूप से सत् सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार संबंध की अर्थों को संबंधी कर देने रूप अर्थक्रिया परमार्थ रूप से क्यों नही सिद्ध होगी? जागृत अवस्था में देखे गए घट आदि पदार्थों की उन जल शीतलता आदि अर्थक्रिया को करने में किसी के भी किसी भी समय बाधकज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, जिससे कि बाधकों के नहीं होने का अच्छा निश्चित होनापन न होता अर्थात् संबंध ही से उत्पन्न अर्थक्रियाओं का कोई बाधक प्रमाण नहीं है, ऐसा निर्णय हो रहा है। सभी प्रकार से संबंध के अभाव को कहने वाले के यहाँ संबंध की अर्थक्रिया में बाधक ज्ञान का अस्तित्व है। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर जैन भी यह कह सकते हैं कि सर्वथा शून्य ही जगत् को कहने वाले या सम्पूर्ण तत्त्वों की सिद्धि का च्युत होना कहने वाले, अथवा अद्वैत ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाले वादियों के यहाँ बौद्धों की मानी हुई और जागते हुए पुरुष की जान ली गई अर्थक्रिया में बाधकज्ञान क्यों नही माना जाता है? उन शून्यवादी, तत्त्वोपप्लववादी और ब्रह्मवादियों के मन्तव्य अनुसार हुआ वह बाधकज्ञान अविद्या की सामर्थ्य से होता है, वह प्रमाणरूप नहीं है। इस प्रकार बौद्ध के कहने पर जैन कहते हैं कि पदार्थों के संबंधसहित या संबंधात्मकपने से उस अविद्या की सामर्थ्य से दूसरे बौद्ध विद्वानों को भी