SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 159 संबंधज्ञानं च संबंधस्यार्थक्रिया नीलस्य नीलज्ञानवत् / तदुक्तं / मत्या तावदियमर्थक्रिया यदुत स्वविषयविज्ञानोत्पादनं नामेति॥ विशिष्टार्थान् परित्यज्य नान्या संबंधितास्तिचेत् / तदभावे कुतोर्थानां प्रतितिष्ठेद्विशिष्टता // 48 // स्वकारणवशादेषा तेषां चेत् सैव संमता। संबंधितेति भिद्येत नाम नार्थः कथंचन // 89 // न हि संबंधाभावाः परस्परं संबद्धा इति विशिष्टता तेषां प्रतितिष्ठत्यतिप्रसंगात्। स्वकारणवशात् केषांचिदेव संबंधप्रत्ययहेतुतासमानप्रत्ययहेतुतावदितिचेत् सैव संबंधिता तद्वदिति नाममात्रं भिद्यते न पुनरर्थः अर्थक्रिया है। सो ही कहा है-कि अपने स्वरूप विषय में अन्य की बुद्धियों द्वारा विज्ञान उत्पन्न करा देना ही पदार्थों की अर्थक्रिया है। विशेष अवस्था वाले पदार्थों को छोड़कर अन्य कोई अर्थों का संबंधीपना नहीं है इस प्रकार उस संबंध के न मानने पर अर्थों का विशिष्टपना कैसे प्रतिष्ठित रह सकेगा? यदि अपने-अपने कारणों के कारण ही उन अर्थों की विशिष्टता होना अभीष्ट है, तब तो यहाँ संबंधिता सम्मत ही है। इस प्रकार तो नाम मात्र का ही भेद है। अर्थ का भी भेद नहीं है। बौद्ध जिसे विशिष्टता कहते हैं, जैन उसे संबंधिता कहते हैं। शब्दों में व्यर्थ झगड़ा करंना उपयुक्त नहीं, अतः सम्बन्ध वस्तुभूत है।८८-८९ // सम्बन्ध का अभाव मानने पर पदार्थ परस्पर में संबंध को प्राप्त है। इस प्रकार की विशिष्टता प्रतिष्ठित नहीं हो पाती है क्योंकि इसमें अतिप्रसंग दोष आता है (अर्थात् परस्पर में कालाणुओं का या जीव का दूसरे जीव के साथ सम्बन्धित हो जाने का प्रसंग आएगा)। . बौद्ध - अपने-अपने कारणों की अधीनता से किन्हीं ही अत्यासन्न अव्यवहित हो रहे पदार्थों का "इनके साथ इनका संबंध है"-इस ज्ञान का कारण हो जाता है। ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि वही अपने नियत कारणों से किन्हीं विवक्षित अर्थों के संबंधितपने का ज्ञान कराने वाला संबंध परिणाम ही तो संबंधिता है अंत: बौद्धों के और जैन मत में केवल नाम रखने में ही भेद है अर्थ का कोई भेद नहीं है। पदार्थों के वास्तविक संबंध को पूर्व प्रकरणों में विस्तार से सिद्ध कर दिया गया है। मिले हुए पदार्थों का संबंधीपना ही इस संबंध की प्रमाणविषयता को व्यवस्थित कराने में अव्यभिचारी निर्दोष कारण है, अतः इस विषय में अधिक विवाद करने से कुछ भी साध्य नहीं है। निर्बाध संबंधीरूप स्वकीय बुद्धि की व्यवस्था हो जाना ही संबंध की निज अर्थक्रिया है। जैसे कि अग्नि की दाह करना, शोषण करना, पाक करना आदि अर्थक्रिया है। अथवा बौद्धों के द्वारा स्वीकृत संवेदन की अपनी अर्थक्रिया स्वरूप का प्रतिभास करना है। (अर्थात् बाधारहित संबंधबुद्धि करा देना संबंध की अवश्यंभाविनी अर्थक्रिया है। वस्तुभूत कारण से ही वस्तुभूत कार्य उत्पन्न हो सकता है)। यदि उस संबंधज्ञान की केवल वासनाओं के निमित्त से उत्पत्ति होना मानोगे तब तो सम्पूर्ण पदार्थों की सभी अर्थक्रियायें केवल वासनाओं को हेतु मानकर ही उत्पन्न हो जाएंगी अतः कोई भी वस्तु परमार्थरूप से अर्थक्रिया को करने वाली नहीं बन सकेगी। इस प्रकार यथार्थवस्तुपन की व्यवस्था कैसे होगी?
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy