________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 158 संबंधं व्याप्तितोर्थानां विनिश्चित्य प्रवर्तते। येन तर्कः स संवादात् प्रमाणं तत्र गम्यते // 85|| येन हि प्रत्ययेन प्रतिपत्ता साध्यसाधनार्थानां व्याप्त्या संबंधं निश्चित्यानुमानाय प्रवर्तते स तर्कः संबंधे संवादात्प्रमाणमिति मन्यामहे। कुतः पुनरयं संबंधो वस्तु सत् सिद्धो यतस्तर्कस्य तत्र संवादात् प्रमाणत्वं कल्पितो हि संबंधस्तस्य विचारासहत्वादित्यत्रोच्यतेसंबंधो वस्तु सन्नर्थक्रियाकारित्वयोगतः। स्वेष्टार्थतत्त्ववत्तत्र चिंता स्यादर्थभासिनी॥८६॥ का पुनः संबंधस्यार्थक्रिया नाम॥ येयं संबंधितार्थानां संबंधवशवर्तिनी। सैवेष्टार्थक्रिया तज्ज्ञैः संबंधस्य स्वधीरपि // 8 // सति संबंधेर्थानां संबंधिता भवति नासतीति तदन्वयव्यतिरेकानुविधायिनी या प्रतीता सैवार्थक्रिया तस्य तद्विद्भिरभिमता यथा नीलान्वयव्यतिरेकानुविधायिनी क्वचिन्नीलता नीलस्यार्थक्रिया तस्यास्तत्साध्यत्वात् / जिस ज्ञान के द्वारा अर्थों के संबंध को सम्पूर्ण देश, काल का उपसंहार करने वाली व्याप्ति के द्वारा विशेष निश्चय कर अनुमानकर्ता जीव प्रवृत्ति करता है, वह तर्कज्ञान (चिंता) उस संबंध ग्रहण में संवाद हो जाने के कारण प्रमाण समझा जाता है॥८५॥ जिस ज्ञान के द्वारा ज्ञाता जीव साध्य साधनरूप अर्थों में व्यापने वाले सम्बन्ध का निश्चय करके अनुमान के लिए प्रवृत्ति करता है, वह तर्कज्ञान साध्यसाधन के संबंध को जानने में बाधारहित संवाद होने के कारण प्रमाण है, ऐसा हम स्याद्वादी मानते हैं। बौद्ध : यह संबंध वस्तुभूत कैसे सिद्ध होता है जिससे कि उस संबंध के जानने में सम्वाद हो जाने से तर्कज्ञान को प्रमाण माना जाता है? क्योंकि, वह संबंध पदार्थ कल्पित ही है, विचारों को नहीं झेल सकता है। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर आचार्य अपना सिद्धान्त कहते हैं ____ अर्थक्रिया को करने वाला होने से सम्बन्ध वस्तुभूत है, जैसे कि अपने-अपने अभीष्टतत्त्व अर्थ वास्तविक हैं। उस संबंध में यथार्थपन का प्रकाश कराने वाली चिंता बुद्धि उपयोगिनी हो रही है। अर्थात् अनुमाता के लिए संबंध का ज्ञान (अनुमिति) करने में चिन्ता (तर्कज्ञान) उपयोगी है / / 86 / / बौद्ध पूछते हैं कि संबंध की वह अर्थक्रिया कौनसी है? इसके बारे में आचार्य कहते हैं - संबंध के अधीन होकर वर्त रही जो अर्थों की संबंधिता है, वही संबंध की अर्थक्रिया उस संबंध के वेत्ता विद्वानों ने अभीष्ट की है / संबंध का ज्ञान करा देना भी संबंध की अर्थक्रिया है॥८७॥ वस्तुभूत संबंध के होने पर ही (घृत जल, आत्मा कर्मआदि) अर्थों का सम्बन्धपना होता है। संबंध के न होने पर (या कल्पित संबंध के होने पर) संबंधपना नहीं है। इस प्रकार उस संबंध के अन्वयव्यतिरेक का अनुसरण करने वाली जो प्रतीति है, विद्वानों ने उसी संबंध की अर्थक्रिया को संबंधीपना अभीष्ट किया है। जैसे कि किसी नील रंग से रंगे हुए वस्त्र में नील के साथ अन्वय व्यतिरेक का अनुविधान करने वाली नीलता ही नीलरंग की अर्थक्रिया है क्योंकि, वह कपड़े में नीलापन नीलरंग से ही साधने योग्य कार्य है तथा नील का ज्ञान करा देना भी जैसे नील की अर्थक्रिया है, वैसे ही संबंध का ज्ञान करा देना भी संबंध की