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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 157 स्वलक्षणात्मकोर्थो यस्य हेतुत्वं धर्मः कल्पते यस्तु प्रतीयते नासावर्थोऽभिमत इति। किंच तल्लिंगमाश्रित्य क्षणिकपरमाणुस्वलक्षणानुमानं प्रवर्तेत यत्सादृश्यज्ञानवैशद्यप्रतिभासस्य बाधकं स्यात्। ततो विध्वस्तबाधं वैसादृश्यज्ञानवत्सादृश्यवैशद्यमिति। परमार्थसत्सादृश्यं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयभावमनुभवत्येकत्ववत्॥ तदविद्याबलादिष्टा कल्पनैकत्वभासिनी। सादृश्यभासिनी चेति वागविद्योदयाध्रुवम् // 84 // तदेवं निर्बाधबोधाधिरूढे प्रसिद्धेप्येकत्वे सादृश्ये च भावानां कल्पनैवेयमेकत्वसादृश्यावभासिनी दुरंतानाद्यविद्योपजनिता लोकस्येति बुवाणः परमदर्शनमोहोदयमेवात्मनो ध्रुवमवबोधयति, सहक मादिपर्यायव्यापिनो द्रव्यस्यैकत्वेन सुप्रतीतत्वात् / सादृश्यस्य च पर्यायसामान्यस्य प्रतिद्रव्यव्यक्तिव्यवस्थितस्य समाना इति प्रत्ययविषयस्योपचारादेकत्वव्यवहारभाजः सकलदोषासंस्पृष्टस्य सुस्पष्टत्वात्। ततस्तद्विषयप्रत्यभिज्ञानसिद्धिरनवद्यैव॥ है तथा उस लिङ्ग का आश्रय कर क्षणिक ओर परमाणुरूप स्वलक्षण का साधक कौनसा अनुमान प्रवृत्ति करेगा? जो सादृश्यज्ञान के विशद प्रतिभास का बाधक होता है अत: बाधाओं का विध्वंस करने वाले सादृश्य का विसदज्ञान होना सिद्ध हो जाता है, जैसे कि विसदृशपने का ज्ञान विशद रूप से सिद्ध है अतः परमार्थस्वरूप से विद्यमान सादृश्यपदार्थ प्रत्यभिज्ञान के विषयपन का अनुभव कर रहा है। जैसेकि पूर्वोत्तर पर्यायों में रहने वाला एकपना प्रत्यभिज्ञान का विषय सिद्ध है। ___ यदि (बौद्धों को) एकत्व का प्रकाश करने वाली और सादृश्य का प्रतिभास करने वाली वह कल्पना (प्रतीति) अविद्या की सामर्थ्य से अभीष्ट है, तो निश्चय ही बौद्धों का वचन स्वयं अविद्या के उदय से प्रवर्त्त हो रहा है। अर्थात् यथार्थवस्तु को जानने वाले प्रमाणज्ञान को अविद्याजन्य कहने वाला बौद्ध स्वयं अविद्या से पीड़ित है॥८॥ ... उपर्युक्त क्रम से पदार्थों के एकत्व और सादृश्य का बाधारहित ज्ञान में प्राप्त हो जाना प्रसिद्ध हो जाने पर भी “यह सादृश्य और एकत्व का प्रतिभास करने वाली प्रतीतिरूप कल्पना कठिनता से अन्त आने वाली अनादिकालीन लगी हुई अविद्या से लौकिक जीवों के उत्पन्न हो जाती है।" इस प्रकार कहने वाला बौद्ध निश्चय से स्वयं अपने ही अत्यधिक दर्शन मोहनीय कर्म के उदय को उद्घाटित कर रहा है। गुणस्वरूप सहभावी पर्याय और अर्थ, व्यंजन पर्यायरूप क्रमभावी पर्याय द्रव्य में एकत्वपन से व्याप्त प्रतीत हो रही है तथा प्रत्येक द्रव्यव्यक्तियों में समानपने से व्यवस्थित हो रही पर्यायें सादृश्य है, यह भी प्रतीत हो रहा है। यह इसके समान है, ऐसे ज्ञान के विषयभूत और उपचार से एकपन के व्यवहार को धारण करने वाले तथा सम्पूर्ण दोषों से नहीं छुये गये सादृश्य का भी स्पष्टज्ञान हो रहा है। अत: उस सादृश्य को विषय करने वाले प्रत्यभिज्ञान की सिद्धि निर्दोष है। यहाँ तक संज्ञा ज्ञान का प्रकरण समाप्त है। अब चिंता ज्ञान का कथन करते हैं
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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