________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 147 क्षणप्रध्वंसिनः संत: सर्वथैव विलक्षणाः। इति व्याप्तेरसिद्धत्वाद्विप्रकृष्टार्थशंकिनाम् // 67 // नित्यानां विप्रकृष्टानामभावे भावनिश्चयात् / कुतश्चिद्व्याप्तिसंसिद्धिराश्रयेत यदा तदा // 8 // नेदं नैरात्मकं जीवच्छरीरमिति साधयेत् / प्राणादिमत्त्वतोस्यैवं व्यतिरेकप्रसिद्धतः // 19 // यथा विप्रकृष्टानां नित्याद्यर्थानामभावे सत्त्वस्य हेतोः सद्बाधनिश्चयस्तद्व्याप्तिसिद्धिनिबंधनं तथा विप्रकृष्टस्यात्मन: पाषाणादिस्वभावे प्राणादिमत्त्वस्य हेतोरभावनिश्चयोपि तद्व्याप्तिसिद्धेर्निबंधनं किं न भवेत्? यतो व्यतिरेक्यपि हेतुर्न स्यात् / न च सत्त्वादस्य विशेषं पश्यामः सर्वथा गमकत्वागमकत्वयोरिति प्रत्यभिज्ञान के विषय एकपना और सादृश्य ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे। अत: अनुपलब्धि प्रमाण से प्रत्यभिज्ञान बाधित हो जाता है इस प्रकार कोई बौद्ध कह रहे हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहना भी युक्तियों से घटित नहीं होता है (दुर्घट है)। यह कैसे दुर्घट है? उसके बारे में कहते हैं स्वभावों से विप्रकृष्ट विरुद्ध पदार्थों के सद्भाव में आशंका करने वालों के यहाँ “जो जो सत् हैं, वे क्षणिक हैं” अथवा “जो जो सत् पदार्थ हैं, वे सर्वथा ही विसदृश हैं" -ऐसी व्याप्ति असिद्ध है। व्याप्ति का ग्रहण सम्पूर्ण देशकालवर्ती साध्य-साधनों के उपसंहार से किया जाता है। अत: बौद्ध अनुमान द्वारा क्षणिकत्व को और विलक्षणता को सिद्ध नहीं कर सकते हैं। 67 // जब कालत्रयवर्ती नित्यपदार्थों का और स्वभाव, देश, काल से व्यवधान को प्राप्त विप्रकृष्ट पदार्थों का अभाव मानने पर सत् का निश्चय होता है, तब किसी विपक्षव्यावृत्ति रूप व्यतिरेक के बल से व्याप्ति की सिद्धि होने का आश्रय लेते हैं, ऐसी दशा में यह जीवित शरीर आत्मा रहित नहीं है, क्योंकि श्वास, निश्वास, आदि से सहित है। जो सात्मक नहीं है, वह प्राण आदि से युक्त नहीं है, जैसे घट, पट आदि। इस प्रकार व्यतिरेक की प्रसिद्धि हो जाने से यहाँ आत्मसहितपना सिद्ध कर सकते हैं, किन्तु बौद्धों ने व्यतिरेकी हेतुओं से अनुमान होना माना ही नहीं है॥६८-६९॥ जिस प्रकार विप्रकृष्ट और नित्य पदार्थों के अभाव में सत् हेतु के सद्भाव का निश्चय हो जाता है, और वह निश्चय ही पाषाण आदि में विप्रकृष्ट आत्मा के अभाव होने पर श्वासोच्छ्वास आदि हेतु का अभाव है, यह निश्चय उसके व्याप्ति की सिद्धि का कारण क्यों नहीं होगा? अर्थात् जो जो सत् स्वरूप है वह क्षणिक है अतः नित्यादि पदार्थों का अभाव सिद्ध होता है क्योंकि जो निश्चय होता है, वह सत् नहीं होता। इस प्रकार बौद्ध दर्शन अभाव हेतु सत् के सद्भाव का निश्चय करता है। उसी प्रकार पाषाणादि आत्मा नहीं हैं, क्योंकि श्वासोच्छ्वास आदि नहीं हैं। यह हेतु पाषाण आदि में आत्मा के अभाव का साधक क्यों नहीं होगा जिससे बौद्धों के यहाँ अन्वयी के समान व्यतिरेकी भी हेतु न हो सके यानी व्यतिरेकी भी हेतु सिद्ध है। सत्त्व हेतु को व्यतिरेक की सामर्थ्य से क्षणिकपन साध्य का बोधक मान लिया जाये और प्राणादिमत्त्व को सात्यकपन को साधने के लिए गमक न माना जाये, इस पक्षपात पूर्ण उक्ति में कोई नियामक नहीं है। हम सत्त्व हेतु से इस प्राणादिमत्त्व का सभी प्रकारों से गमकपन और सर्वथा अज्ञापकपन में कोई विशेष चमत्कार नहीं देख रहे हैं फिर सत्त्व को गमकपना और प्राण आदि सहितपने को अगमकपना क्यों कहा जा रहा है? इस प्रकार प्राणादिमत्त्व और