________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 148 प्राणादिमत्त्वादेर्व्याप्तसिद्धिमुपयतां सत्त्वादेरपि तदसिद्धिर्बलादापतत्येव / ततो न क्षणिकत्वं सर्वथा विलक्षणत्वं वार्थानां सिद्ध्यति विरुद्धत्वाच्च हेतोः। तथाहिक्षणिकेपि विरुद्ध्येते भावेनंशे क्रमाक्रमौ / स्वार्थक्रिया च सत्त्वं च ततोनेकांतवृत्ति तत् // 7 // सर्वथा क्षणिके न क्रमाक्रमौ परमार्थतः संभवतस्तदसंभवे ज्ञानमात्रमपि स्वकीयार्थक्रियां कुतो व्यवतिष्ठते? यतः सत्त्वं ततो विनिवर्तमानं कथंचित्क्षणिकेनेकांतात्मनि स्थितिमासाद्य तद्विरुद्धं न भवेदित्युक्तोत्तरप्रायं। तथा च किं कुर्यादित्याह;निहंति सर्वथैकांतं साधयेत्परिणामिनं / भवेत्तत्र न भावे तत्प्रत्यभिज्ञा कथंचन // 7 // पुद्गल का इतर द्रव्यों से भेद को साधने के लिए दिया गया रूपवत्त्व इत्यादिक व्यतिरेकी हेतुओं की व्याप्ति की सिद्धि को नहीं स्वीकार करने वाले बौद्धों के यहाँ सत्त्व, कृतकत्त्व आदि हेतुओं की भी अपने साध्य क्षणिकपन आदि के साथ उस व्याप्ति का नहीं सिद्ध होना बलात्कार से आ जाता है, अतः पदार्थों का क्षणिकपना और सर्वथा विलक्षणपना सिद्ध नहीं होता है। सत्त्व हेतु की प्रकृतसाध्य के साथ व्याप्ति सिद्ध नहीं हो सकती। बौद्ध क्षणिकपने का सिद्धान्त पुष्ट करने के लिए दिया गया सत्त्व हेतु विरुद्ध हेत्वाभास प्रसिद्ध ही है, इसको कहते हैं क्षणिक और निरंश (निरात्मक) भाव में भी क्रम और यौगपद्य नहीं रहता है, तथा उसमें अपने योग्य अर्थक्रिया भी नहीं होती है अर्थात् कूटस्थ के समान नि:स्वभाव क्षणिक पदार्थ में भी क्रम और यौगपद्य तथा अर्थक्रिया का होना विरुद्ध है क्योंकि ये अनेक धर्म आत्मक पदार्थ में पाये जाते हैं अतः वह बौद्धों का सत्त्व हेतु विपक्ष में वृत्ति होने से अनैकान्तिक है॥७०॥ सर्वथा दूसरे क्षण में नाश होने वाले पदार्थ में वास्तविकरूप से क्रम और अक्रम संभव नहीं हैं। (क्रम-अक्रम तो कालान्तरस्थायी पदार्थ में हो सकता है) अत: उन क्रम-अक्रम के असम्भव होने पर ज्ञान मात्र होना भी अपनी अर्थक्रिया में कैसे व्यवस्थित हो सकेगा? जिससे कि उस सर्वथा क्षणिक से निवृत्ति को प्राप्त सत्त्व हेतु अनेकान्तस्वरूप कथंचित् क्षणिकपदार्थ में स्थिति को प्राप्त करके उस क्षणिकपन से विरुद्ध नहीं होता हो? अर्थात् व्यापक के न रहने पर व्याप्य भी नहीं रहता है, अतः कथंचित् क्षणिकपन के साथ व्याप्ति रखने वाला सत्त्व हेतु सर्वथा क्षणिकत्व को साधने में विरुद्ध होता है, अत: बौद्धों के यहाँ माना गया क्षणिकपन सिद्ध नहीं होता है, और भी इस प्रकार की शंकाओं के उत्तर हम पूर्व प्रकरणों में कह चुके हैं। इस प्रकार जैनों के अनुसार सिद्ध किया गया वह हेतु प्रकरण में क्या करेगा? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं ___ अतः सत्त्व हेतु से कथंचित् क्षणिकपन और अलग-अलग पदार्थों में कथंचित् सदृशपना सिद्ध हो जाने पर निर्बाध सिद्ध हुई सदृशपन और एकपन को विषय करने वाली प्रत्यभिज्ञा नाम की प्रतीति पदार्थों के सर्वथा नित्यपन अथवा क्षणिकपन के एकान्त को नष्ट करती है, (और पदार्थों के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूपपरिणाम को सिद्ध करती है)। ऐसे अनेकान्त रूप परिणामी पदार्थ में प्रत्यभिज्ञान कैसे सिद्ध नहीं होता है ? अर्थात् अवश्य होता है॥७१॥