________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 146 तदेवं न प्रत्यक्षस्वभावानुपलब्धिर्वा बाधिका॥ यत्सत्तत्सर्वं क्षणिकं सर्वथैव विलक्षणं / ततोऽन्यत्र प्रतीघातात्सत्त्वस्यार्थक्रियाक्षतेः॥६४॥ अर्थक्रियाक्षतिस्तत्र क्रमवृत्तिविरोधतः। तद्विरोधस्ततोनंशः स्यान्नापेक्षाविघाततः॥६५॥ इतीयं व्यापका दृष्टिर्नित्यत्वं हंति वस्तुनः / सादृश्यं च ततः संज्ञा बाधिकेत्यपि दुर्घटम् // 66 // सत्त्वमिदमर्थक्रिया व्याप्तं सा च क्रमाक्रमाभ्यां तौ वा क्षणिकात्सदृशाच्च निवर्तमानौ स्वव्याप्यामर्थक्रियां निवर्तयतः। सा निवर्तमाना स्वव्याप्यं सत्त्वं निवर्तयतीति व्यापकानुपलब्धिनित्यस्यासत्त्वं सर्वथा सादृश्यं च साधयंती नित्यत्वसादृश्यविषयस्य प्रत्यभिज्ञानस्य बाधिकास्तीति केचित् / तदेतदपि दुर्घटम्। कुत: भावार्थ : प्रत्यभिज्ञान के विषय दृष्टव्य अर्थ का सर्वत्र सर्वदा उपलम्भ हो रहा है, अनुपलम्भ नहीं अतः प्रत्यक्ष योग्य स्वभाव वाले अर्थ की अनुपलब्धि तो प्रत्यभिज्ञान को बाधा करने वाली नहीं बौद्ध कहते हैं कि जो सत् हैं, वे सभी क्षणिक हैं अर्थात् नित्य नहीं हैं। अथवा जो जो सत् है वह सभी प्रकार से एक दूसरे से विलक्षण है, अर्थात् कोई भी किसी के सदृश नहीं है, उससे अतिरिक्त अन्य स्थानों में सत् का व्याघात हो जाने से अर्थक्रिया की क्षति है। अर्थात् व्यापक अर्थक्रिया से सत्त्व व्याप्त है। नित्य या सदृश पदार्थ में अर्थक्रिया न होने से परमार्थ सत् का व्याघात हो जाता है, तथा उस सर्वथा नित्य या सदृश पदार्थ में क्रम और युगपत् से प्रवृत्ति होने का विरोध होने से अर्थक्रिया की हानि हो जाती है। भावार्थ : अर्थ में क्रम या यौगपद्य प्रवृत्ति होने से अर्थक्रिया व्याप्त है। नित्यपदार्थ में क्रम और युगपत्पन प्रवृत्ति नहीं होती है अतः अर्थक्रिया भी नहीं हो सकती। व्यापक के न होने पर व्याप्य भी नहीं रहता है, क्योंकि उस नित्य के साथ अर्थक्रिया का विरोध है, तथा अंशों से रहित क्षणिक का अन्य कारणों की अपेक्षा से विघात होता है। इस प्रकार यह व्यापक की अनुपलब्धि वस्तु के नित्यपन और सदृशपन को नष्ट कर देती है। अत: व्यापकानुपलब्धि इन एकत्व प्रत्यभिज्ञान और सादृश्य प्रत्यभिज्ञान की बाधक है। आचार्य कहते हैं कि यह भी बौद्धों का कहना घटित नहीं हो सकता है॥६४-६५-६६॥ बौद्धों का कथन है कि यह वस्तुभूत पदार्थों का सत्त्व अर्थक्रिया से व्याप्त है। तथा वह अर्थक्रिया क्रम से और अक्रम से व्याप्त है। ऐसी दशा में क्रम और अक्रम सर्वथा नित्य पदार्थ और सदृश पदार्थों से निर्वृत्त होते हुए अपने से व्याप्य अर्थक्रिया को भी निवृत्त करा देते हैं और वह अर्थक्रिया जब नित्य पदार्थ से निवृत्त हो जाती है, तब अपने व्याप्य सत्त्व को भी उस कूटस्थ से निवृत्त करा लेती है। इस प्रकार व्यापक की अनुपलब्धि कूटस्थ नित्य के असत्त्व का और सभी प्रकार असादृश्य का साधन कराती हुई नित्यत्व और सादृश्य का विषय करने वाले प्रत्यभिज्ञान की बाधक बन जाती है। भावार्थ : वह्वि की अनुपलब्धि से जैसे धूम का अभाव सिद्ध हो जाता है उसी प्रकार क्रमयोगपद्य या अर्थक्रिया की अनुपलब्धि से नित्य या सदृश अर्थ में सत्ता का अभाव सिद्ध हो जाता है। इसलिए