________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 145 प्रत्यभिज्ञानं / किं तर्हि प्रमाणांतरं संवादकत्वात् प्रत्यक्षादिवत् / न हि दृश्यप्राप्ययोरेकत्वाध्यारोपेण प्रमाणांतरसंगमलक्षण: संवाद: संज्ञायामसिद्धः, प्रत्यक्षादावपि तदसिद्धिप्रसंगात्। एतेनार्थक्रियास्थितिरविसंवादस्तदभावान्न प्रत्यभिज्ञाप्रमाणमित्यपि प्रत्युक्तं / तत एव प्रत्यक्षादेरप्रमाणत्वप्रसंगात्। प्रतिपत्तुः परितोषात्संवादस्तत्र प्रमाणतां व्यवस्थापयतीति चेत् , प्रत्यभिज्ञानेपि / न हि ततः प्रवृत्तस्यार्थक्रियास्थितौ परितोषो नास्तीति / यदि पुन: बाधकाभाव: संवादस्तदभावान्न प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमिति मतं तदा न सिद्धो हेतुः संवादाभावादिति / तथाहिसंवादो बाधवैधुर्यनिश्चयश्चेत्स विद्यते। सर्वत्र प्रत्यभिज्ञाने प्रत्यक्षादाविवांजसा // 60 // प्रत्यक्षं बाधकं तावन्न संज्ञानस्य जातुचित् / तद्भिन्नगोचरत्वेन परलोकमतेरिव // 61 // यत्र प्रवर्तते ज्ञानं स्वयं तत्रैव साधकम् / बाधकं वा परस्य स्यान्नान्यत्रातिप्रसंगतः // 62 // अदृश्यानुपलब्धिश्च बाधिका तस्य न प्रमा। दृश्या दृष्टिस्तु सर्वत्रासिद्धा तगोचरे सदा // 63 // अर्थ को समझने वाले प्रतिपत्ता (ज्ञाता) को संतोष हो जाने से उन प्रत्यक्ष आदिकों में संवाद हो जाता है और वह संवाद प्रत्यक्ष आदिकों में प्रमाणता की व्यवस्था करा देता है, इस प्रकार कहने पर तो प्रत्यभिज्ञान में भी ज्ञाता को संतोष हो जाने से प्रमाणता आ जाएगी क्योंकि उस प्रत्यभिज्ञान से अर्थ को जानकर परिचित पदार्थ अर्थक्रिया की स्थिति में प्रवृत्त हुए ज्ञाता को संतोष नहीं है-ऐसा नहीं है अपितु अर्थक्रियास्थिति में अधिक परितोष मिलता है। यदि कहो कि उस प्रमाण के विषय में बाधक प्रमाणों का उत्पन्न नहीं होना ही संवाद है, उस संवाद के न होने से प्रत्यभिज्ञा प्रमाण नहीं है तो ऐसा मानने पर तो बौद्धों का संवादाभावरूप हेतु सिद्ध नहीं होता है। अतः स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान के विषय का कोई बाधक प्रमाण नहीं है। अत: बाधकाभावरूप संवाद का अभाव हेतु प्रत्यभिज्ञारूपपक्ष में स्थित नहीं . तथाहि-अन्य बाधक प्रमाणों के अभाव का निश्चय हो जाना यदि संवाद कहा जाता है तो वह संवाद प्रत्यक्ष आदि के समान सभी प्रत्यभिज्ञानों में निर्विघ्न विद्यमान है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण तो प्रत्यभिज्ञान का कभी भी बाधक नहीं हो सकता क्योंकि प्रत्यभिज्ञान द्वारा जाने गए विषय से भिन्न पदार्थ को प्रत्यक्षज्ञान विषय करता है। जैसे कि अनुमान द्वारा हुई परलोक की ज्ञप्ति का बाधक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होता है। जो ज्ञान जिस विषय में स्वयं प्रवृत्ति करता है, वह ज्ञान उसी विषय में साधक अथवा बाधक हो सकता है। दूसरा ज्ञान अपने अविषय में साधक या परपक्ष का बाधक नहीं हो सकता। अन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् अविषयक ज्ञान बाधक होग तो प्रत्यक्ष भी बाधक हो जाएगा॥ 60-61-62 // __ नहीं देखने योग्य पदार्थों की अनुपलब्धि उस प्रत्यभिज्ञान की बाधक नहीं है (अर्थात् अभाव को जानने में अदृश्यानुपलब्धि प्रमाण नहीं मानी गई है अतः अदृश्यानुपलब्धि तो प्रत्यभिज्ञान की बाधक नहीं है) तथा उस प्रत्यभिज्ञान के विषय में दृश्य की अनुपलब्धि सर्वत्र सर्वदा असिद्ध है॥६३॥