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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 144 प्रत्यभिज्ञानुमानत्वे प्रमाणं नान्यथेत्यपि। तत्र युक्तानुमानस्योत्थानाभावप्रसंगतः॥५७॥ तत्र लिंगे तदेवेदमिति ज्ञानं निबंधनम् / लैंगिकस्यानुमानं चेदनवस्था प्रसज्यते // 58 // लिंगप्रत्यवमर्शेण विना नास्त्येव लैंगिकम् / विभिन्नः सोनुमानाच्चेत्प्रमाणांतरमागतम् // 59 // न हि लिंगप्रत्यवगमो प्रमाणं ततो व्याप्तिव्यवहारकालभावलिंगसादृश्याव्यवस्थितिप्रसंगात्। तथा चानुमानोदयासंभवस्तत्संभवेतिप्रसंगात्। अप्रमाणात्तदव्यवस्थितौ प्रमाणानर्थक्यप्रसंग इत्युक्तं। ततोनुमानं प्रत्यभिज्ञान अन्यथा (दूसरा) प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यभिज्ञान प्रमाण अनुमान में गर्भित है। ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर अनुमान प्रमाण की उत्पत्ति के अभाव का प्रसंग आता है॥ 57 // __ क्योंकि उस अनुमान में “यह वही हेतु है" जो साध्य के साथ व्याप्ति रखने वाला है; इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान कारण है। अत: इस प्रत्यभिज्ञान को पुनः अनुमान मानोगे तो उस अनुमान में भी यह वही हेतु है ऐसे प्रत्यभिज्ञान की आकांक्षा होने से अनवस्था दोष हो जाने का प्रसंग आता है॥ 58 // ___हेतु का प्रत्यभिज्ञान (विचार) किये बिना लिङ्गजन्य अनुमान ज्ञान नहीं हो सकता अतः अनवस्था दोष के निवारणार्थ वह लिंग का परामर्श करना रूप प्रत्यभिज्ञान यदि अनुमान से सर्वथा अछूता भिन्न प्रमाण माना जाएगा, तब तो बौद्धों को तीसरे पृथक् प्रमाण का प्रसंग आयेगा अर्थात् प्रमाणान्तर की सिद्धि होगी (किन्तु बौद्धों ने प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण माने हैं)॥ 59 // , “यह वैसा ही हेतु है" ऐसा लिङ्ग का प्रत्यभिज्ञान करना अप्रमाण नहीं है क्योंकि इसको अप्रमाण मानने पर उस प्रत्यभिज्ञान से व्याप्ति, व्यवहारकाल भावि लिंग के सादृश्य की व्यवस्था नहीं हो सकने का प्रसंग आता है। और वैसा होने पर अनुमान की उत्पत्ति होना असम्भव हो जाती है। फिर भी अप्रमाण प्रत्यभिज्ञान से उस अनुमान की उत्पत्ति मानोगे तो अतिप्रसंग दोष आता है क्योंकि, अप्रमाण ज्ञान से जाने गए हेतु से उस सदृशपन की व्यवस्था होना मानने पर प्रमाण ज्ञानों की व्यर्थता का प्रसंग आता है। यह हम पहले भी कह चुके हैं अतः प्रत्यभिज्ञान अनुमान प्रमाणस्वरूप नहीं है। शंका : फिर क्या है? समाधान : प्रत्यक्ष के समान अपने द्वारा ज्ञात कर लिये गये विषय में सफल प्रवृत्ति करा देने वाला (संवादक) होने से स्वतंत्र प्रमाण है। दर्शन करने योग्य आलम्बन और पीछे प्राप्त करने योग्य स्वलक्षण में एकता का अध्यारोप करके अन्य प्रमाणों की संगति होना स्वरूप संवाद जैसा प्रत्यक्ष प्रमाण में है, वैसा संवाद इस संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान) में भी असिद्ध नहीं है। अथवा ऐसा नहीं मानेंगे तो प्रत्यक्ष और अनुमान में भी उस संवाद की असिद्धि का प्रसंग आएगा। इस उक्त कथन से अर्थक्रिया में स्थिति करा देने रूप अविसम्वाद है, उसके न होने से प्रत्यभिज्ञा प्रमाण नहीं है। इस कथन का भी खण्डन कर दिया गया है क्योंकि, प्रत्यभिज्ञान को अप्रमाण मान लेने पर प्रत्यक्ष आदिकों के अप्रमाणपन का प्रसंग आता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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