________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 143 प्रत्यक्षविषये तावन्नानुमानस्य संगतिः। तस्य स्वलक्षणे वृत्त्यभावादालंबनात्मनि // 52 // तत्राध्यक्षांतरस्यापि न वृत्तिः क्षणभंगिनि / तथैव सिद्धसंवादस्यानवस्था तथा न किम् // 53 // प्राप्य स्वलक्षणे वृत्तिर्यथाध्यक्षानुमानयोः। प्रत्यक्षस्य तथा किं न संज्ञया संप्रतीयते // 54 // . तयालंबितमन्यच्चेत्प्राप्तमन्यत्स्वलक्षणं। प्रत्यक्षेणानुमानेन किं तदेव भवन्मते॥५५॥ गृहीतप्राप्तयोरेवाध्यारोपाच्चेत्तदेव तत् / समानं प्रत्यभिज्ञायां सर्वे पश्यतु सद्धियः॥५६॥ प्रत्यक्ष के द्वारा जाने गये विषय में अनुमान प्रमाण की तो संगति नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष के आलम्बन कारण स्वरूप वस्तुभूत स्वलक्षण में उस अनुमान प्रमाण की वृत्ति का अभाव है अर्थात् बौद्धों के मतानुसार अनुमान ज्ञान अवस्तुभूत सामान्य में रहता है। स्वलक्षण को अनुमान नहीं छूता है।॥५२॥ . उस प्रकृत प्रत्यक्ष के क्षणिक विषय में स्वलक्षण को जानने वाले दूसरे प्रत्यक्ष प्रमाण की भी वृत्ति नहीं हो सकती (अर्थात्-बौद्धों ने प्रत्यक्ष का कारण स्वलक्षण माना है। एक ही प्रत्यक्ष को उत्पन्न कराके जब स्वलक्षण नष्ट हो गया तो वह नष्ट स्वलक्षण दूसरे प्रत्यक्ष को कैसे उत्पन्न कर सकता है?)। उसी प्रकार प्रथम प्रत्यक्ष का सम्वादीपना (सत्यपना) दूसरे प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति से माना जाएगा तो संवाद का अनवस्था दोष क्यों नही होगा? अवश्य होगा / / 53 / / अर्थात् पूर्व प्रत्यक्ष ज्ञान में संवादता किस ज्ञान से आई? यदि कहो कि इससे पूर्व होने वाले ज्ञान से आई? तो उसमें किससे आई? इस प्रकार प्रश्नमाला की समाप्ति न होने से अनवस्था दोष आता है। (बौद्धों के मत में ज्ञान जिस विषय को जानता है, उसको आलम्बन कारण कहते हैं और ज्ञान से जानकर जिसको हस्तगत किया जाता है, वह प्राप्त करने योग्य स्वलक्षण प्राप्य कहलाता है) प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों में से प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा जैसे प्राप्त करने योग्य स्वलक्षण वस्तु में ज्ञाता की प्रवृत्ति होना देखा जाता है, उसी प्रकार प्रत्यभिज्ञा के द्वारा वास्तविक स्वलक्षण में प्रवृत्ति होना क्या नहीं देखा जाता है? अर्थात् प्रत्यभिज्ञान से भी उस ही या उसके सदृश पुस्तक आदि वस्तुओं में प्रमाताओं की प्रवृत्तियाँ होती हुई प्रतीत होती हैं।॥ 54 // - उस प्रत्यभिज्ञान से अवलम्बित पदार्थ अन्य है और प्रत्यभिज्ञान से जानकर पुन: प्राप्त किया गया स्वलक्षण पदार्थ भिन्न है (अतः प्रत्यक्ष का दृष्टांत सम नहीं है)। इस प्रकार बौद्धों के कहने पर तो आचार्य कहते हैं कि आपके मत में प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण के द्वारा क्या वह का वही पदार्थ प्राप्त किया जाता . है? अर्थात् प्रत्यक्ष के द्वारा ज्ञात पदार्थ अनुमान का विषय नहीं हो सकता क्योंकि वह दूसरे क्षण में नष्ट हो जाता है // 55 // (बौद्ध) ज्ञान के द्वारा ग्रहण किये गये आलम्बन पदार्थ और हस्त प्राप्त किये गये स्वलक्षण वस्तु के एकपन का अध्यारोप कर देने से वह आलम्बन करने योग्य ही पदार्थ प्राप्त किया जाता है। ऐसा कहने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञान में भी वह समान है। सभी श्रेष्ठ बुद्धि वाले उसको देखें, अनुभव करें। अर्थात् प्रत्यभिज्ञान के द्वारा भी जानी हुई वस्तु प्रवृत्ति कर लेने पर प्राप्त कर ली जाती है। यहाँ भी ज्ञात और प्राप्तव्य अर्थ का एकत्वारोप सुलभ है // 56 //