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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 142 प्रादुर्भावादुपपन्नं तद्वैचित्र्यं योग्यतायास्तदावरणक्षयोपशमलक्षणाया वैचित्र्यात्॥ .. कुतः पुनर्विचित्रा योग्यता स्यादित्युच्यते;मलावृतमणेर्व्यक्तिर्यथानेकविधेक्ष्यते। कर्मावृतात्मनस्तद्वद्योग्यता विविधा न किम् // 49 // ___स्वावरणविगमस्य वैचित्र्यान्मणेरिवात्मन: स्वरूपाभिव्यक्तिवैचित्र्यं न हि तद्विरुद्धं / तद्विगमस्तु स्वकारणविशेषवैचित्र्यादुपपद्यते। तद्विगमकारणं पुनर्रव्यक्षेत्रकालभवभावलक्षणं यदन्वयव्यतिरेकस्तत्संभावनेति पर्याप्तं प्रपंचेन। सादृश्यैकत्वप्रत्यभिज्ञानयोः सर्वथा निरवद्यत्वात्॥ नन्वस्त्वेकत्वसादृश्यप्रतीतिर्नार्थगोचरा। संवादाभावतो व्योमकेशपाशप्रतीतिवत् // 50 // ___ सादृश्यप्रत्यभिज्ञैकत्वप्रत्यभिज्ञा च नास्माभिरपह्वयते तथा प्रतीतेः, केवलं सानर्थविषया संवादाभावादाकाशकेशपाशप्रतिभासनवदिति चेत्तत्र यो नाम संवादः प्रमाणांतरसंगमः। सोध्यक्षेपि न संभाव्य इति ते क्व प्रमाणता // 51 // की योग्यता किस निमित्त से होती है? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं__ जैसे मल से ढकी हुई मणि की मल के तारतम्य से दूर हो जाने पर अनेक प्रकार की अभिव्यक्ति (स्वच्छता) देखी जाती है, उसी प्रकार पूर्वबद्ध कर्म से ढकी हुई आत्मा की क्षयोपशमरूप योग्यता भी नाना प्रकार की क्यों न होगी? अवश्य ही होगी॥४९।। स्वकीय आवरणों के दूर होने की विचित्रता से मणि का स्वच्छभाव जैसे विचित्र प्रकार का हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों द्वारा आवृत ज्ञानमय आत्मा के स्वरूप के प्रकट होने रूप योग्यता भी अनेक प्रकार की है, अत: वह आत्मा के स्वरूप की विचित्रता विरुद्ध नहीं है। आत्मा से लगे हुए उन कर्मों का वियोग होना तोअपने कारणविशेषों की विचित्रता से बन जाता है। उन आवरणों के उपशम, क्षय, क्षयोपशमरूप वियोग का कारण फिर वे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावस्वरूप पदार्थ माने गए हैं, जिनके साथ अन्वय, व्यतिरेक होता है उसमें योग्यता की सम्भावना है, अत: इसका विस्तार करना अनुचित है। यहाँ तक सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और एकत्वप्रत्यभिज्ञान की सभी प्रकार निर्दोष हो जाने से सिद्धि की गई है। बौद्ध शंका : (द्रव्य की भूत और वर्तमान पर्यायों में रहने वाले) एकत्व तथा (समान पर्यायों में रहने वाले) सादृश्य को जानने वाली प्रत्यभिज्ञानरूप प्रतीति तो वास्तविक अर्थ को विषय करने वाली नहीं है, क्योंकि उन प्रतीतियों में संवाद का अभाव है जैसे कि आकाश के केशों की गुंथी हुई चोटी को जानने वाली प्रतीति अर्थ को विषय नहीं करती है॥ 50 // सादृश्य प्रत्यभिज्ञान और एकत्व प्रत्यभिज्ञान को हम छिपाते नहीं हैं क्योंकि ऐसा ज्ञान होना प्रतीत होता है। वह प्रत्यभिज्ञान केवल सम्वाद नहीं होने के कारण वास्तविक अर्थ को विषय करने वाला नहीं है। जैसे आकाश की चोटी को जानने वाला ज्ञान वस्तुभूत अर्थ को विषय नहीं करता है, बौद्ध के इस प्रकार कहने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि यहाँ पर जो प्रमाणान्तर के संगम रूप संवाद है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान में सम्भव नहीं है अतः प्रत्यक्षज्ञान में प्रमाणता कैसे आ सकती है।। 51 //
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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