________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 141 स्मरणस्य हि नानुभवनमात्रं कारणं सर्वस्य सर्वत्र स्वानुभूतेर्थे स्मरणप्रसंगात्। नापि दृष्टसजातीयदर्शनं तस्मिन् सत्यपि कस्यचित्तदनुपपत्तेर्वासनाप्रबोध: कारणमिति चेत् , कुत: स्यात् / दृष्टसजातीयदर्शनादिति चेन्न, तद्भावेपि तदभावात्। एतेनार्थत्वादिस्तद्धेतुः प्रत्याख्यातः, सर्वस्य दृष्टस्य हेतोर्व्यभिचारात्। तदविद्यावासनाप्रहाणं तत्कारणमितिचेत् , सैव योग्यता स्मरणावरणक्षयोपशमलक्षणा तस्यां च सत्यां सदुपयोगविशेषा वासना प्रबोध इति नाममात्रं भिद्यते। ततो यत्रार्थेनुभवः प्रवृत्तस्तत्र स्मरणावरणक्षयोपशमे सत्यंतरंगे हेतौ बहिरंगे च दृष्टसजातीयदर्शनादौ स्मरणस्योत्पत्तिर्न पुनस्तदभावेतिप्रसंगादिति नानादिद्रव्यपर्यायेषु स्वयमनुभूतेष्वपि कस्यचित्स्मरणं, नापि प्रत्यभिज्ञानं तन्निबंधनं तस्य यथा स्मरणं तथा प्रत्यभिज्ञानावरणक्षयोपशमं च पदार्थों का केवल अनुभव कर लेना ही स्मरण का कारण नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सभी जीवों के अपने अनुभूत विषयों में सर्वत्र स्मरण होने का प्रसंग आएगा, (किन्तु सभी देखी, जानी हुई वस्तुओं का स्मरण नहीं होता है), तथा देखे हुए पदार्थ के समानजाति वाले अन्य किसी पदार्थ का दिख जाना भी स्मरण का कारण नहीं है क्योंकि उस सजातीय पदार्थ का दर्शन होने पर भी किसी-किसी के स्मरणज्ञान नहीं होता है। यदि स्मरण का कारण पहले लगी हई वासनाओं का जागृत होना है, तो वह वासनाओं का प्रबोध किस निमित्त से होता है? देखे हुए पदार्थ के सजातीय पदार्थ को देखने से वासना का उद्बोध होना मानना तो ठीक नहीं है क्योंकि उस सजातीय के देखने पर भी किसी की वे वासनायें प्रबुद्ध नहीं हो पाती हैं। इस कथन से किसी देखी हुई वस्तु की अभिलाषा रखना, प्रकरण प्राप्त हो जाना हेतु का भी खण्डन कर दिया गया है। क्योंकि सभी देखे हुए हेतुओं का अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेकिव्यभिचार पाया जाता है। ... यदि उस स्मरणीय पदार्थ की लगी हुई अविद्यावासना का प्रकृष्ट नाश हो जाना ही स्मरण का कारण माना जाता है. तो वही योग्यता स्मरणावरण कर्म का क्षयोपशम स्वरूप इष्ट है। और उस योग्यता के होने पर श्रेष्ठ उपयोग विशेषरूप वासना का प्रबोध हो जाता है। इस कथन में केवल नाम का भेद है (अर्थ से कोई भेद नहीं है)। अत: जिस अर्थ में अनुभव की प्रवृत्ति है, वहाँ स्मरणावरण का क्षयोपशमस्वरूप अंतरंग कारण और दृष्टपदार्थ के सजातीय अर्थ का दर्शन, अभिलाषा आदिक बहिरंग कारणों के होने पर स्मरण की उत्पत्ति हो जाती है। स्मरणावरण कर्म के क्षयोपशम रूप योग्यता के अभाव में स्मृति नहीं होती है। अन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है (अर्थात् देखे हुए सब पदार्थों का या अदृष्टपदार्थों का भी स्मरण होने का प्रसंग आयेगा)। स्वयं अनुभूत अनादिकाल के द्रव्य की पर्यायों में किसी को भी सभी पर्यायों का स्मरण नहीं होता है तथा उस स्मरण को कारण मानकर होने वाला प्रत्यभिज्ञान भी सभी पर्यायों में नहीं हो पाता है क्योंकि स्मरण के अनुसार और प्रत्यभिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमरूप अंतरंग कारण के अनुकूल होने पर उस प्रत्यभिज्ञान का जन्म होता है अत: उस प्रत्यभिज्ञान की विचित्रता युक्तियों से सिद्ध है, क्योंकि उस प्रत्यभिज्ञान का आवरण करने वाले कर्म के क्षयोपशमस्वरूप योग्यतायें विलक्षण प्रकार की हैं तो कार्यों के विचित्र होने में क्यों आश्चर्य है? कार्यों से ही तो कारणों का अनुमान किया जाता है। फिर वह विचित्र प्रकार