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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 140 क्षयोपशमतस्तच्च नियतं स्यात्कुतश्चन / अनादिपर्ययव्यापि द्रव्यसंवित्तितोस्ति नः॥४४॥ तया यावत्स्वतीतेषु पर्यायेष्वस्ति संस्मृतिः। केन तद्व्यापिनि द्रव्ये प्रत्यभिज्ञास्य वार्यते // 45 // बालकोहं य एवासं स एव च कुमारकः। युवानो मध्यमो वृद्धोऽधुनास्मीति प्रतीतितः॥४६॥ स्मृति: किन्नानुभूतेषु स्वयं भेदेष्वशेषतः। प्रत्यभिज्ञानहेतुः स्यादिति चोद्यं न युक्तिमत् // 47 // तादृक्षयोग्यताहानेः तद्भावे त्वस्ति सांगिनां / व्यभिचारी हि तन्नान्यो हेतुः सर्व: समीक्ष्यते // 48 // भूतकालीन पर्याय को जान रहा है परन्तु इन दोनों के साथ सम्बन्ध जोड़ने वाला इन दोनों से भिन्न प्रत्यभिज्ञान * शंका : जब अतीत और वर्तमान पर्यायों में व्यापक एक द्रव्य को प्रत्यभिज्ञान जानता है, तब अनादिकाल की भूत पर्यायों में व्यापने वाले द्रव्य को विषय कर लेने का प्रसंग आएगा, क्योंकि ऐसा कोई नियम करने वाला कारण नहीं है कि कुछ वर्ष पूर्व ही की पर्यायों और वर्तमान पर्याय में रहने वाले एकपन से आक्रान्त द्रव्य को प्रत्यभिज्ञान जानता है, किन्तु असंख्य वर्ष या अनन्त वर्ष पहले व्यतीत हो चुकी पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को नहीं जान सकता। _____समाधान : ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इसमें नियम कराने वाले हेतु का सद्भाव है। नियत पूर्व पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को विषय करने का नियम तो किसी क्षयोपशम से हो जाता है (और वह क्षयोपशम किसी भी कषायों की विलक्षण मन्दता या कालाणुओं के निमित्त से होता है) हमारे यहाँ प्रत्यभिज्ञान द्वारा अनादिकाल की पर्यायों में व्यापक द्रव्य की संवित्ति होना भी माना है॥ 44 // मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न विशेष धारणारूप संवित्ति से जितनी (यथायोग्य) अतीत पर्यायों में स्मृति होती है, उनमें व्यापने वाले द्रव्य में इसकी प्रत्यभिज्ञा के होने का किसके द्वारा निवारण किया जा सकता है। अर्थात् उन पर्यायों में रहने वाले द्रव्य विषय के प्रत्यभिज्ञान को कोई नहीं रोक सकता है॥४५॥ जो मैं पहले बालक था, वही मैं कुमार अवस्था में था, तथा जो मैं युवा था अथवा मध्यम उम्र का था, वही मैं इस समय बूढ़ा हो गया हूँ-ऐसी प्रतीति होती है, मतिज्ञानावरण का विशेष क्षयोपशम होने से यह आत्मा अनेक वर्षों की पर्यायों को भी जान सकता है, क्योंकि क्षयोपशम के अनुसार स्मरण की गई पूर्व पर्यायों में रहने वाले द्रव्य का प्रत्यभिज्ञान हो जाता है॥४६।। अर्थात् द्रव्य अनन्त पर्यायों का पिण्ड है, अतः पूर्व पर्यायों से युक्त द्रव्य को प्रत्यभिज्ञान जान लेता है। __ स्वयं अनुभव किये गये अनन्त भेद-प्रभेदों में प्रत्यभिज्ञान की कारणभूत स्मृति पूर्णरूप से क्यों नहीं होती है? ऐसा प्रश्न उठाना युक्त नहीं है। 47 // क्योंकि वैसे अंश-उपांशों के स्मरण करने की योग्यता नहीं है। जिन जीवों में भेद-प्रभेदों को स्मरण करने की क्षयोपशमरूप योग्यता विद्यमान है उन पर्यायों को तो सब अंशों का स्मरण हो ही जाता है। इस प्रकरण में नियत स्मृति होने का कारण स्मृति ज्ञानावरण का क्षयोपशम विशेष है, उसमें अन्य (अध्ययन, अभ्यास आदि) सभी हेतु व्यभिचारी देखे जाते हैं अतः स्मरण का अंतरंग अव्यभिचारी कारण योग्यतारूप क्षयोपशम ही है।।४८॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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