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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 139 न ह्येवं सादृश्यैकत्वप्रत्यभिज्ञानयोः संकरव्यतिकरव्यतिरेको लौकिकपरीक्षकयोरसिद्धोऽन्यत्र विभ्रमात्। ततो युक्तं स्वविषये नियमेन प्रवर्तकयोः प्रमाणत्वं प्रत्यक्षादिवत्॥ तदित्यतीतविज्ञानं दृश्यमानेन नैकतां / वेत्ति नेदमिति ज्ञानमतीतेनेति केचन // 41 // तत्सिद्धसाधनं ज्ञानद्वितयं ह्येतदिष्यते। मानदृष्टेर्थपर्याये दृश्यमाने च भेदतः // 42 // द्रव्येण तद्बलोद्भूतज्ञानमेकत्वसाधनम्। दृष्टेक्ष्यमाणपर्यायव्यापिन्यन्यत्ततो मतम् // 43 // न हि सांप्रतिकातीतपर्याययोर्दर्शनस्मरणे एव तत्प्रत्यभिज्ञानं यतो दोषावकाशः स्यात्। किं तर्हि? तद्व्यापिन्येकत्र द्रव्ये संकलनज्ञानं। नन्वेवं तदनादिपर्यायव्यापि द्रव्यविषयं प्रसज्येत नियामकाभावादिति चेन्न, नियामकस्य सद्भावात्॥ किसी विषय में विभ्रम होने से सादृश्य और एकत्व को जानने वाले प्रत्यभिज्ञानों का एकमेक हो जाना (संकर दोष) या कुछ धर्मों का परस्पर बदल जाना व्यतिकर दोष-इन संकर-व्यतिकर दोषों का रहितपना लौकिक और परीक्षक जनों को असिद्ध नहीं है अर्थात् सिद्ध है। किसी विषय में विभ्रम के कारण एकत्व वा सादृश्य में विपरीतता हो जाने पर भी वास्तविक प्रत्यभिज्ञान में संकर व्यतिकर दोष नहीं है अत: प्रत्यभिज्ञान प्रमाणभूतं है इसमें किसी का विरोध नहीं है इसलिए अपने-अपने विषय में नियम से प्रवृत्ति कराने वाले दोनों प्रत्यभिज्ञानों को प्रत्यक्ष, अनुमान आदि के समान प्रमाणपना युक्त है। किसी बौद्ध आदि का कथन - 'वह था' ऐसे भूत पदार्थ को जानने वाला विज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा देखे गए वर्तमान अर्थ के साथ एकपने को नहीं जान पाता है, तथा यह है' ऐसा वर्तमान को जानने वाला प्रत्यक्ष ज्ञान अतीत पदार्थ के साथ वर्तमान अर्थ के एकपन को नहीं जान सकता है क्योंकि प्रत्यक्षज्ञान अविचारक है- इस प्रकार कोई विद्वान कहते हैं, परन्तु ग्रन्थकार कहते हैं कि यह किसी का कहना सिद्ध साधन है, क्योंकि भूत और वर्तमान अर्थ को जानने वाले ये दो स्मरण और प्रत्यक्षज्ञान हैं। पूर्व में धारणा ज्ञान से देखे हुए अर्थपर्याय और वर्तमान में देखे जा रहे अर्थपर्याय में विषयभेद रूप से दो ज्ञान प्रवृत्ति कर रहे हैं (वे एक दूसरे के विषय को नहीं छू सकते हैं)। उन दोनों ज्ञानों की सामर्थ्य से पश्चात् उत्पन्न हुआ तीसरा प्रत्यभिज्ञान देखी जा चुकी और देखी जा रही पर्यायों में द्रव्यरूप से व्याप्त एकत्व को सिद्ध कर रहा है। जो ज्ञान उन स्मरण और प्रत्यक्ष दोनों ज्ञानों से पृथक् माना गया है तथा उसका विषय एकत्व भी उन दोनों पर्यायों से निराला है। अत: अपूर्व अर्थ का ग्राहक होने से प्रत्यभिज्ञान प्रमाण है॥४१-४२-४३॥ ., . वर्तमान की पर्याय को जानने वाला दर्शन और अतीत पर्याय को जानने वाला स्मरण ही वह प्रत्यभिज्ञान नहीं है, जिससे कि प्रत्यभिज्ञान के अप्रमाणपन, व्यर्थपन, गृहीतग्राहीपन आदि दोषों को स्थान मिल सके। शंका : प्रत्यभिज्ञान क्या है? . समाधान : उन भूत और भविष्य की दोनों पर्यायों में व्यापने वाले एकद्रव्य में एक जोड़ रूप ज्ञान होना प्रत्यभिज्ञान है। अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय 'यह' वर्तमान पर्याय को जान रहा है और स्मरण
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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