________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 131 मत्यादिभेदं मतिज्ञानं मतिपरिसमाप्तं तद्भेदानामन्येषामत्रैवांतर्भावादिति व्याख्येयं गत्यंतरासंभवात् तथा विरोधाभावाच्च / स्मृतिरप्रमाणमेव सा कथं प्रमाणेतर्भवतीति चेन्न, तदप्रमाणत्वे सर्वशून्यतापत्तेः / तथाहिस्मृतेः प्रमाणतापाये संज्ञाया न प्रमाणता। तदप्रमाणतायां तु चिंता न व्यवतिष्ठते // 9 // तदप्रतिष्ठितौ क्वात्र मानं नाम प्रवर्तते। तदप्रवर्तनेध्यक्षप्रामाण्यं नावतिष्ठते // 10 // ततः प्रमाणशून्यत्वात्प्रमेयस्यापि शून्यता। सापि मानाद्विना नेति किमप्यस्तीति साकुलम् // 11 // तस्मात्प्रवर्तकत्वेन प्रमाणत्वेत्र कस्यचित् / स्मृत्यादीनां प्रमाणत्वं युक्तमुक्तं च कैश्चन // 12 // अक्षज्ञानैरनुस्मृत्य प्रत्यभिज्ञाय चिंतयेत् / आभिमुख्येन तद्भेदान् विनिश्चित्य प्रवर्तते // 13 // अथवा इति शब्द का समाप्ति अर्थ कर मति, स्मृति आदि भेद वाला मतिज्ञान चारों ओर से मति द्वारा समाप्त हो चुका है। उस मति के अन्य भेद-प्रभेदों का मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, अभिनिबोध इन पाँचों में अन्तर्भाव हो जाता है, ऐसा भी व्याख्यान कर लेना चाहिए क्योंकि अन्य उपायों की असम्भवता है तथा सिद्धान्त से कोई विरोध भी नहीं है। गृहीतपदार्थ को ही ग्रहण करने वाला स्मरणज्ञान अप्रमाण है। वह प्रमाणों में कैसे गर्भित हो सकता है? इस प्रकार कहना उचित नहीं है, क्योंकि उस स्मरण को अप्रमाण मानने पर सभी प्रमाणों और प्रमेयों के शून्यपने का प्रसंग आता है। इसी अर्थ को कहते हैं . स्मृति को प्रमाण नहीं मानने पर संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान) में प्रमाणता नहीं आ सकती, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान में स्मरणज्ञान कारण है। तथा उस प्रत्यभिज्ञान को अप्रमाण मानने पर चिंताज्ञान भी व्यवस्थित नहीं हो सकता (क्योंकि चिंताज्ञान में प्रत्यभिज्ञान कारण पड़ता है)। इसी प्रकार व्याप्तिज्ञानरूप चिंता की प्रतिष्ठा नहीं होने पर अनुमानज्ञान कहाँ प्रवृत्ति कर सकता है? (अनुमान के आत्मलाभ में व्याप्तिज्ञान कारण पड़ता है) तथा उस अनुमान की कहीं भी प्रवृत्ति न होने पर प्रत्यक्ष प्रमाण भी ठहर नहीं सकता। अत: सभी ज्ञापक प्रमाणों की शून्यता हो जाने से प्रमेय पदार्थों की भी शून्यता हो जाएगी और वह शून्यवादियों की शून्यता भी प्रमाण के बिना सिद्ध नहीं हो सकती। इस प्रकार “कुछ भी तत्त्व है" इस व्यवस्था को करने के लिए भारी आकुलता हो जाएगी॥९-१०-११॥ . अर्थ में प्रवृत्ति कराने वाला होने से किसी ज्ञान को यदि प्रमाण माना जाएगा तब तो स्मृति, संज्ञा आदि भी प्रमाण हो जाएंगे, किन्हीं विद्वानों के द्वारा कहा गया यह मन्तव्य युक्तिपूर्ण है॥१२॥ ___ क्योंकि आत्मा इन्द्रियजन्य ज्ञान के द्वारा स्मरण करके प्रत्यभिज्ञान के लिए उस सदृशता का ज्ञान करता है और तर्कज्ञानों से धूम, अग्नि आदि का साहचर्य ग्रहण कर चिंत्ताज्ञान में प्रवृत्ति करता है। तथा अर्थ की अभिमुखता करके उसके भेदों का विशेष निश्चय कर अग्नि आदि साध्य में अनुमान द्वारा प्रवृत्ति करता है॥१३॥