________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 132 अक्षज्ञानैर्विनिश्चित्य प्रवर्तत इति यथा प्रत्यक्षस्य प्रवर्तकत्वमुक्तं तथा स्मृत्वा प्रवर्तत इति स्मृतेरपि प्रत्यभिज्ञाय प्रवर्तत इति संज्ञाया अपि चिंतयत् तत् प्रवर्तत इति तर्कस्यापि आभिमुख्येन तद्भेदान् विनिश्चित्य प्रवर्तत इत्यभिनिबोधस्यापि ततस्ततः प्रतिपत्तुः प्रवृत्तेर्यथाभासमाकांक्षानिवृत्तिघटनात् / तत्र प्रत्यक्षमेव प्रवर्तकं प्रमाणं न पुनः स्मृतिरिति मतमुपालभते;अक्षज्ञानैर्विनिश्चित्य सर्व एव प्रवर्तते। इति ब्रुवन् स्वचित्तादौ प्रवर्तत इति स्मृतेः॥१४॥ कथम्गृहीतग्रहणात्तत्र न स्मृतेश्चेत्प्रमाणता। धारावाह्यक्षविज्ञानस्यैवं लभ्येत केन सा॥१५॥ विशिष्टस्योपयोगस्याभावे सापि न चेन्मता। तदभावे स्मरणेप्यक्षज्ञानवन्मानतास्तु नः // 16 // स्मृत्या स्वार्थं परिच्छिद्य प्रवृत्तौ न च बाध्यते। येन प्रेक्षावतां तस्याः प्रवृत्तिर्विनिवार्यते // 17 // स्मृतिमूलाभिलाषादेर्व्यवहारः प्रवर्तकः / न प्रमाणं यथा तद्वदक्षधीमूलिका स्मृतिः॥१८॥ ___ जिस प्रकार इन्द्रियजन्य ज्ञानों द्वारा विशेष निश्चय करके जीव ज्ञेय पदार्थों में प्रवृत्ति करता है इसलिए उस प्रत्यक्ष ज्ञान को प्रवर्तक कहा है, उसी प्रकार स्मृतिज्ञान से भी पदार्थ का स्मरण कर जीव प्रवृत्ति करता है अत: स्मृति के भी प्रवर्तकपना है। प्रत्यभिज्ञान करके भी प्रवृत्ति करता है अत: संज्ञा को भी प्रवर्तकपना है। उस प्रत्यभिज्ञान से जाने हुए का चिंतन करता हुआ प्रवृत्ति करता है अत: तर्क को भी प्रवर्तकपना है। ____तथा व्याप्ति ज्ञान से संबंध ग्रहण कर अभिमुखपने से उसके भेदों का विशेष निश्चयकर अनुमाता प्रवृत्ति करता है अत: अभिनिबोध (यानी स्वार्थानुमान) को भी प्रवर्तकपना है। इसलिए जिस ज्ञान से प्रतीति करने वाले प्रतिपत्ता (ज्ञाता) की प्रवृत्ति होती है, उस प्रतिभास का अतिक्रमण नहीं कर (यानी स्मृति आदि से हुए प्रतिभासों के अनुमान) आकांक्षाओं की निवृत्ति होना घटित होता है/ जिज्ञासित पदार्थ की आकांक्षा की निवृत्ति करना स्मृति आदि ज्ञानों द्वारा साध्य कार्य है। अतः प्रवर्तकपना स्मृति आदि में भी है। इन ज्ञानों में से एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही प्रवर्तक है। फिर स्मृति आदि तो अर्थ में प्रवृत्ति कराने वाले नहीं हैं? इस मन्तव्य पर आचार्य उलाहना देते हैं कि सम्पूर्ण ही जीव इन्द्रियजन्य ज्ञानों के द्वारा पदार्थों का निश्चय कर प्रवृत्ति करते हैं, इस प्रकार कहने वाला (बौद्ध भी) अपनी आत्मा, शरीर आदि में स्मृति द्वारा ही प्रवृत्ति करता है अतः स्मृति भी प्रवृत्ति का कारण है॥१४॥ तो फिर बौद्ध स्मृति को प्रवर्तक क्यों नहीं मानते हैं?-यदि उन प्रमाणों के प्रकरण में स्मृति को गृहीत का ग्रहण करने वाली होने से प्रमाण नहीं मानोगे तो धारावाही इन्द्रियज्ञान को वह प्रमाणपना कैसे प्राप्त हो सकेगा? विशिष्ट उपयोग का अभाव होने से धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण नहीं माना जाए तो प्रत्यक्ष ज्ञान के समान विशिष्ट उपयोग के सद्भाव में स्याद्वादियों के भी स्वार्थ की विशिष्ट नवीन ज्ञप्ति हो जाने पर स्मरण में भी प्रमाणता आएगी॥१५-१६॥ स्मरण ज्ञान के द्वारा स्व और अर्थ को जानकर प्रवृत्ति होने में कोई भी बाधा नहीं है जिससे कि उस स्मृति से विचारशाली जीवों की घट, पट आदि में प्रवृत्ति का निवारण किया जाए // 17 //