________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 125 सवितर्कविचारा हि पंच विज्ञानधातवः / निरूपणानुस्मरणविकल्पेनाविकल्पकाः // 28 // इत्येवं स्वयमिष्टत्वान्नैकांतेनाविकल्पकं। प्रत्यक्षं युक्तमास्थातुं परस्यापि विरोधतः // 29 // विधूतकल्पनाजालं योगिप्रत्यक्षमेव चेत् / सर्वथा लक्षणाव्याप्तिदोषः केनास्य वार्यते // 30 // लौकिकी कल्पनापोढा यतोध्यक्षं तदेव चेत् / शास्त्रीया सास्ति तत्रेति नैकांतेनाविकल्पकम् // 31 // तदपाये च बुद्धस्य न स्याद्धर्मोपदेशना। कुट्यादेर्या न सा तस्येत्येतत्पूर्वं विनिश्चितं // 32 // ततः स्यात्कल्पनास्वभावशून्यमभ्रांतं प्रत्यक्षमिति न व्याहतं। ये त्वाहुनेंद्रियानिंद्रियानपेक्षं प्रत्यक्षं तस्य तदपेक्षामंतरेणासंभवादिति तान् प्रत्याह;में दृढ़ ज्ञप्ति करना विचार है। ये दो कल्पनाएँ प्रत्यक्ष में विद्यमान हैं)। किन्तु नाम आदि के कल्पनारूप निरूपण और पहले अनुभूत किए गए पदार्थ के अनुसार विकल्प करने रूप अनुस्मरण आदि विकल्पों से वह प्रत्यक्ष सविकल्पक नहीं है। इस प्रकार बौद्धों ने वितर्क विचार सहित विकल्प स्वयं प्रत्यक्ष में इष्ट किया है अतः एकान्त आग्रह करके प्रत्यक्ष निर्विकल्प की श्रद्धा करना उचित नहीं है क्योंकि स्वयं बौद्ध के या अन्य वादियों के यहाँ भी प्रत्यक्ष को सर्वथा निर्विकल्पक मानने में विरोध आता है अर्थात् प्रत्यक्ष को सर्वथा निर्विकल्प मानने से अपने ही वचनों से विरोध आता है॥२८-२९॥ यदि सर्वज्ञयोगियों का प्रत्यक्ष कल्पनाओं के जाल से रहित है, ऐसा बौद्ध कहेंगे, तब तो सभी प्रकार से इस प्रत्यक्ष के बौद्धोक्तलक्षण के अव्याप्ति दोष का किससे निवारण होगा अर्थात् प्रत्यक्ष का निर्विकल्पक लक्षण योगियों के प्रत्यक्ष में तो घट जायेगा परन्तु इन्द्रियप्रत्यक्षों या मानसप्रत्यक्षों में घटित नहीं होता है। अतः अव्याप्त है॥३०॥ . __ क्योंकि लोकव्यवहार में की गई कल्पनाओं से रहित जो प्रत्यक्ष होता है वही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है। बौद्ध के ऐसा कहने पर ग्रन्थकार कहते हैं कि उस प्रत्यक्ष में शास्त्र संबंधी कल्पनाएँ विद्यमान हैं, ऐसी दशा में एकान्तरूप से प्रत्यक्ष निर्विकल्पक नहीं है अपितु विकल्पसहित है॥३१॥ उस शास्त्रीय कल्पना के नहीं मानने पर बुद्ध का धर्मोपदेश संभव नहीं है। जैसे कि झोपड़ी आदि के द्वारा धर्मोपदेश संभव नहीं होता है, परन्तु बुद्ध के द्वारा धर्मोपदेश होना आपने माना है वह सर्वथा निर्विकल्पक बुद्ध ज्ञान से नहीं हो सकता है। अथवा वह धर्मोपदेश बुद्ध का है-ऐसा कहा नहीं जा सकता। इन सब बातों का हम पूर्व प्रकरणों में विशेषरूप से निश्चय कर चुके हैं॥३२॥ ___ अत: कल्पनास्वभातों से शून्य अभ्रान्त प्रत्यक्ष है, यह प्रत्यक्ष का लक्षण व्याघातयुक्त है अर्थात्कल्पनापोढ़ प्रत्यक्ष का खण्डन हो जाता है। . जो अन्य वादी यह कहते हैं कि इन्द्रिय और मन की अपेक्षा बिना प्रत्यक्षज्ञान नहीं होता है, क्योंकि उनकी अपेक्षा के बिना उस प्रत्यक्ष की उत्पत्ति असम्भव है। इस प्रकार कहने वाले (वैशेषिकों) के प्रति आचार्य कहते हैं