________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 124 स्वाभिधानविशेषस्य निश्चयो यद्यपेक्षते। स्वाभिलाषांतरं नूनमनवस्था तदा न किम् // 22 // गत्वा सुदूरमप्येवमभिधानस्य निश्चये। स्वाभिलापानपेक्षस्य किमु नार्थस्य निश्चयः // 23 // अभिधानविशेषश्चेत् स्वस्मिन्नर्थे च निश्चयम् / कुर्वन् दृष्टः स्वशक्त्यैव लिंगाद्यर्थेपि तादृशः॥२४॥ शाब्दस्य निश्चयोर्थस्य शब्दापेक्षोस्त्वबाधितः। लिंगजन्माक्षजन्मा च तदपेक्षोभिधीयते // 25 // ततः प्रत्यक्षमास्थेयं मुख्यं वा देशतोपि वा। स्यानिर्विकल्पकं सिद्धं युक्त्या स्यात्सविकल्पकं // 26 // सर्वथा निर्विकल्पत्वे स्वार्थव्यवसितिः कुतः। सर्वथा सविकल्पत्वे तस्य स्याच्छब्दकल्पना // 27 // न केवलं जैनस्य कथंचित्सविकल्पकं प्रत्यक्षं। किं तर्हि सौगतस्यापीत्याह;करना यदि अपने वाचक अन्य शब्दों की अपेक्षा करता होगा, तब तो नियम से अनवस्था दोष क्यों नहीं होगा? अर्थात् अवश्य होगा। इस प्रकार बहुत दूर भी चलकर अपने वाचक शब्दों की अपेक्षा नहीं रखने वाले शब्दों का निर्णय माना जाएगा। यानी कुछ दूर जाकर वाचक शब्दों का निर्णय उनके अभिधायक शब्दों के बिना भी होना मानना पड़ेगा तो पहले से ही वाचक शब्दों के बिना भी अर्थ का निश्चय करना क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है अतः संकेतस्मरण, शब्दयोजना आदि के बिना भी स्वार्थ का निश्चय हो जाता है॥२२-२३॥ - यदि कहो कि वाचक विशेष शब्द अपनी शक्ति के द्वारा अपना (शब्द का) और अर्थ का निश्चय करते देखा गया है, तब तो उस शब्द के समान ही अपनी सामर्थ्य से हेतु आदि अर्थ भी वाचक शब्दों के बिना वैसा निर्णय करा देंगे (प्रत्येक निश्चय को करने में विशेष शब्दों को व्यर्थ क्यों लगाया जाय)। शब्द को सुनकर उत्पन्न हुआ अर्थ का निर्णय तो बाधा रहित होता हुआ शब्द की अपेक्षा रखने वाला मान लिया जाय, किन्तु ज्ञापक हेतु से उत्पन्न हुए निर्णय (अनुमान) और इन्द्रियों से उत्पन्न हुए निर्णय (प्रत्यक्ष) को तो उस शब्द की अपेक्षा रखने वाला नहीं कहा जा सकता // 24-25 // अत: यह निश्चय करना चाहिए कि मुख्य प्रत्यक्ष अथवा एकदेश विशद संव्यवहार प्रत्यक्ष-ये दोनों ही कथंचित् निर्विकल्पक सिद्ध हैं और युक्ति से कथंचित् सविकल्पक भी सिद्ध हैं। अर्थात् संकेत-स्मरण, वाचक शब्द जोड़ना आदि कल्पनाओं से रहित प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है और स्पष्ट रूप से स्वार्थ व्यवसाय करने रूप सद्भूत कल्पना के कारण प्रत्यक्ष सविकल्पक भी है। सर्वथा यदि प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक मान लिया जाएगा तो स्वार्थ का निर्णय कैसे होगा ? स्वार्थ निर्णय करना भी तो एक कल्पना है और यदि उस प्रत्यक्ष को सर्वथा सविकल्पक स्वीकार किया जाएगा तो शाब्दबोध के समान प्रत्यक्ष ज्ञान में भी शब्दों की कल्पना हो जाएगी (ऐसा होने पर वह प्रत्यक्षज्ञान परोक्ष हो जाएगा) // 26-27 // केवल जैनों के यहाँ ही प्रत्यक्षज्ञान कथंचित् सविकल्पक नहीं माना गया है, किन्तु बौद्धों के यहाँ भी प्रत्यक्ष को सविकल्पक इष्ट किया है। इस बात को स्पष्ट कर आचार्य कहते हैं - रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार ये पाँच विज्ञानधातु वितर्क और विचार सहित हैं। निरूपण अनुस्मरण आदि विकल्पों से रहित हैं (ज्ञान द्वारा आलंबन कारण को विषय करना वितर्क है और उसी विषय