________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 123 संकेतस्मरणोपाया दृष्टसंकल्पनात्मिका। नैषा व्यवसितिः स्पष्टा ततो युक्ताक्षजन्मनि // 20 // यदेव हि संकेतस्मरणोपायं दृष्टसंकल्पनात्मकं कल्पनं तदेव पूर्वापरपरामर्शशून्ये चाक्षुषे स्पर्शनादिके वा दर्शने विरुध्यते। न चेयं विशदावभासार्थव्यवसितिस्तथा, ततो युक्ता सा प्रत्यक्षे कुतः पुनरियं न संकेतस्मरणोपायेत्युच्यते॥ स्वतो हि व्यवसायात्मप्रत्यक्षं सकलं मतम्। अभिधानाद्यपेक्षायामन्योन्याश्रयणात्तयोः॥२१॥ सति ह्यभिधानस्मरणादौ क्वचिद्व्यवसाय: सति च व्यवसाये ह्यभिधानस्मरणादीति कथमन्योन्याश्रयणं न स्यात्। स्वाभिधानविशेषापेक्षा एवार्थनिश्चयैर्व्यवसीयते इति ब्रुवन्नार्थमध्यवस्यस्तदभिधानविशेषस्य स्मरति अननुस्मरन्न योजयति अयोजयन्न व्यवस्यतीत्यकल्पकं जगदर्थयेत् / स्ववचनविरुद्ध चेदं। किं च जो कल्पना संकेतग्रहण और उसके स्मरण आदि उपायों से उत्पन्न होती है, अथवा देखे हुए पदार्थ में अन्य संबंधियों का संकल्प करने रूप है, वह स्वार्थनिर्णय करने रूप स्पष्ट कल्पना इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष में संभव है, निर्विकल्प प्रत्यक्ष में नहीं // 20 // जो ही दृष्ट पदार्थ में संकेतस्मरण उपाय (मेरा, तेरा आदि संकल्प करने) रूप कल्पना है, वही कल्पना पूर्वापरपरामर्श शून्य चाक्षुष प्रत्यक्ष अथवा स्पर्शन आदि प्रत्यक्षों में विरुद्ध पड़ती है किन्तु विशद प्रकाश रूप से अर्थ का निर्णय करने रूप-यह कल्पना इस प्रकार परामर्श करने वाली नहीं है। अत: वह स्वार्थ निर्णयरूप कल्पना प्रत्यक्षज्ञान में समुचित है। प्रत्यक्ष में होने वाली कल्पना शब्दसंबंधी संकेतस्मरण के निमित्त से उत्पन्न कैसे नहीं है? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं: __ शब्द योजना, संकेतस्मरण करना आदि की अपेक्षा बिना उत्पन्न हुए सम्पूर्ण प्रत्यक्ष स्वयं अपने आप से निर्णयस्वरूप हैं। यदि उन प्रत्यक्ष और निर्णय दोनों में भी अभिधान आदि की अपेक्षा मानी जाएगी तो अन्योन्याश्रय दोष आता है॥२१॥ . वाचक शब्द के स्मरण आदि के होने पर कहीं घट, पट आदि में निर्णय हो और उनका निश्चय हो जाने पर वाचक शब्द का स्मरण आदि हो, इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष क्यों नहीं होगा? अपने वाचक शब्द विशेषों की अपेक्षा से ही पदार्थ निश्चयों के द्वारा निश्चित किये जाते हैं इस प्रकार कहने वाला (बौद्ध) अर्थ का निर्णय करते हुए अर्थ के वाचक विशेष शब्दों का स्मरण करता है, क्योंकि, स्मरण नहीं करने वाला तो शब्दों को अर्थ के साथ जोड़ सकता है, और शब्दों को अर्थ के साथ नहीं जोड़ने वाला अर्थ का निश्चय नहीं कर पाता है अत: इस जगत् के निर्विकल्पक होने की अभिलाषा करता है, उसका यह कथन स्वयं में विरोधात्मक है। ... किंच : जब सभी अर्थ अपना निश्चय कराने में अपने वाचक विशिष्ट शब्दों की अपेक्षा करते हैं (तो वह वाचक शब्द भी तो एक विशेष अर्थ है)। उस शब्दरूप अर्थ का निश्चय करने के लिए भी अपने वाचक अन्य शब्दों की अपेक्षा की जाएगी। इस प्रकार उस शब्द के भी वाचक शब्दस्वरूप पदार्थों का निश्चय