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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 122 यथावभासतो कल्पात् प्रत्यक्षात्प्रभवन्नपि / तत्पृष्ठतो विकल्प: स्यात् तथााक्षाच्च स स्फुटः॥१८॥ दर्शनादविकल्पाद्विकल्पः प्रजायते न पुनरर्थादिति कुतो विशेषः / न चाभिलापवत्येव प्रतीति: कल्पना जात्यादिमत्प्रतीतेरपि तथात्वाविरोधात्। संति चार्थेषु जात्यादयोपि तेषु प्रतिभासमानेषु प्रतिभासेरन्। ततो जात्याद्यात्मकार्थदर्शनं सविकल्पं प्रत्यक्षसिद्धमिति विरुद्धमेव साधनम्॥ न च जात्यादिरूपत्वमर्थस्यासिद्धमंजसा। निर्बाधबोधविध्वस्तसमस्तारेकि तत्त्वतः॥१९॥ जात्यादिरूपत्वे हि भावानां निर्बाधो बोधः समस्तमारेकितं हंतीति किं नश्चिंतया। निर्बाधत्वं पुनर्जात्यादिबोधस्यान्यत्र समर्थित प्रतिपत्तव्यं ततो जात्याद्यात्मकस्वार्थव्यवसितिः कल्पना स्पष्टा प्रत्यक्षे व्यवतिष्ठते॥ ___ भावार्थ : कल्पनाओं स रहित अर्थ है, उससे उत्पन्न हुआ प्रत्यक्षज्ञान भी निर्विकल्पक है। कारण के अनुरूप कार्य होता है। इस प्रकार (बौद्धों के) कहने पर आचार्य समाधान करते हैं कि - ___ जिस प्रकार निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से उत्पन्न ज्ञान भी पीछे सविकल्पक हो जाता है, उसी प्रकार निर्विकल्पक अर्थ भी इन्द्रियों से स्पष्ट सविकल्पक प्रत्यक्ष हो सकता है॥१८॥ निर्विकल्पक दर्शन से विकल्प ज्ञान उत्पन्न होता है किन्तु फिर निर्विकल्पक अर्थ से सविकल्पकज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। इस प्रकार के नियम में किस हेतु से विशेषता आती है? तथा, शब्द योजना वाली प्रतीति ही कल्पना नहीं है किन्तु, जाति, गुण आदि से युक्त प्रतीति में इस प्रकार सद्भूत कल्पना का कोई विरोध नहीं है। वस्तुभूत अर्थों में जाति, गुण आदि कल्पनाएँ भी विद्यमान हैं। उन अर्थों के प्रकाशमान होने पर वे सामान्य विशेषगुण आदि भी प्रतिभासित हो जाते हैं अत: जाति, द्रव्य आदि स्वरूप कल्पना के साथ तदात्मक अर्थ से उत्पन्न अर्थ का दर्शन सविकल्पक है, यह प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है अतः निर्विकल्प हेतु विरुद्ध ही है। (साध्य से विपरीत व्याप्ति रखने वाला हेतु विरुद्ध कहलाता है) वास्तव में घट, पट आदि पदार्थों का जाति आदि के साथ तदात्मक भाव असिद्ध नहीं है, क्योंकि निर्बाध ज्ञानों के द्वारा इस विषय की संपूर्ण शंकाओं को विध्वस्त कर दिया गया है अर्थात् सम्पूर्ण पदार्थ सामान्य-विशेष आदि अनेक धर्मात्मक हैं, इसमें कोई बाधक नहीं है॥१९॥ सभी पदार्थों के जाति आदि, स्वरूप होने में समस्त देश, काल की अपेक्षा से होने वाली बाधाओं का नाशक सम्यग्ज्ञान, जब सम्पूर्ण शंकाओं को नष्ट कर देता है, तो ऐसी दशा में हमको चिन्ता करने से क्या लाभ है? अर्थात् हम निश्चिंत हैं। जाति आदि से तदात्मक अर्थ को जानने वाला ज्ञान बाधाओं से रहित है, इसका हम अन्य प्रकरणों में समर्थन कर चुके हैं वहाँ से समझ लेना चाहिए अत: जाति आदि.से तदात्मक हो रहे स्व और अर्थ का निर्णय करन रूप स्पष्ट कल्पना प्रत्यक्ष ज्ञान में व्यवस्थित है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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